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184 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


होकर समझ रहा हो, वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल खयाल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले--मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुखी हैं। मेरी बुद्धि का दोष, आंखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या कहूं, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती।

गोविन्दी को शंका हुई। बोली--लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं है, यह समझ लीजिए।

मेहता ने दृढ़ता से कहा--नारी-हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती