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190 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

बीस

बीस

फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुंचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगंध बांट रहे थे, और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी।

गांवों में ऊख की बोआई लग गई थी। अभी धूप नहीं निकली, पर होरी खेत में पहुंच गया। धनिया, सोना, रूपा, तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं, और होरी गंड़ा से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मजूरी करने लगा है। अब वह किसान नहीं, मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मजदूर का नाता है।

दातादीन ने आकर डांटा-हाथ और फुरती से चलाओ होरी। इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।

होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा-चला ही तो रहा हूं महाराज, बैठा तो नहीं हूं।

दातादीन मजूरों से रगड़कर काम लेते थे इसलिए उनके यहां कोई मजूर टिकता न था। होरी उनका स्वभाव जानता था, पर जाता कहां।

पंडित उसके सामने खड़े होकर बोले-चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।

होरी ने विष का घूंट पीकर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया। इधर महीनों से उसे पेट-भर भोजन न मिलता था। प्रायःः एक जून तो चबेने पर ही कटता था। दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया। कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी-जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था इस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता तो ताजा हो जाता, लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियां पड़ने का भय था।

धनिया और दोनों लड़कियां ऊख के गट्ठे लिए गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आईं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डांट बताई-यहां तमासा क्या देख रही है धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर भर में तू एक खेप लाई है। इस हिसाब से तो दिन-भर में भी ऊख न ढुल पाएगी।

धनिया ने त्योरी बदलकर कहा-क्या जरा दम भी न लेने दोगे महाराज। हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गए। जरा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।

दातादीन बिगड़ उठे-पैसे देते हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम लेना है, तो घर जाकर लो।

धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई-तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?

धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा-जा तो रही हूं, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।

दातादीन ने लाल आंखें निकाल लीं-जान पड़ता है, अभी मिजाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।

धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी-तुम्हारे द्वार पर भीख मांगने तो नहीं जाती।