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पृष्ठ:गोदान.pdf/१९२

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192 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


रखकर काम करो, लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।

सहसा होरी ने आंखें खोल दीं और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका।

धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली-अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नई (नाखूनों) में समा गए थे।

होरी ने कातर स्वर में कहा-अच्छा हूं। न जाने कैसा जी हो गया था।

धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा-देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे।

पटेश्वरी ने हंसकर कहा-धनिया तो रो-पीट रही थी।

होरी ने आतुरता से पूछा-सचमुच तू रोती थी धनिया?

धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेलकर कहा-इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आए थे?

पटेश्वरी ने चिढ़ाया-तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।

होरो ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा-पगली है और क्या अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाए रखना चाहती है।

दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाए और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गई।

उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखाई दिया।

गांव के कुत्ते पहले तो झुकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा-'भैया आए, भैया आए', और तालियां बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन कदम आगे बढ़ी, पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गई। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूंघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गई।

गोबर ने मां-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गई। उसका हृदय गर्व से उमड़ पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आंखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे, रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आंखों देखकर मानो उसको जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है, मगर होरी ने मुंह फेर लिया था।

गोबर ने पूछा-दादा को क्या हुआ है, अम्मां?

धनिया घर का हाल कहकर उसे दुःखी न करना चाहती थी। बोली-कुछ नहीं है बेटा जरा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतारो, हाथ-मुंह धोओ? कहां थे तुम इतने दिन? भला, इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी? आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आंखें फूट गईं। यही आस बंधी रहती थी कि कब वह दिन आएगा और कब तुम्हें देखूंगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता