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194 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा। जाकर दुलारी की दुकान से गेहूं का आटा, चावल-घी उधार लाई। इधर महीनों से सहुआइन एक पैसे की चीज उधार न देती थी, पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी।

उसने पूछा-गोबर तो खूब कमा के आया है न?

धनिया बोली-अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी। अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हां, सबके लिए किनारदार साड़ियां लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुसल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है।

दुलारी ने असीस दिया-भगवान् करे, जहां रहे कुसल से रहे। मां-बाप को और क्या चाहिए, लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपये अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।

इधर सोना चुन्नू को उसका फ्राक और टोप और जूता पहनाकर राजा बना रही थी। बालक इन चीजों को पहनने से ज्यादा हाथ में लेकर खेलना पसंद करता था। अंदर गोबर और झुनिया के मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था।

झुनिया ने तिरस्कार-भरी आंखों से देखकर कहा-मुझे लाकर यहां बैठा दिया। आप परदेस की राह ली। फिर न खोज न खबर ली कि मरती है या जीती है। साल भर के बाद अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम। मैं तो सोचती हूं कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े, तो साल भर के बाद लौटे। मरदों का विस्वास ही क्या, कहीं कोई और ताक ली होगी, सोचा होगा, एक घर के लिए है ही, एक बाहर के लिए भी हो जाय।

गोबर ने सफाई दी-झुनिया, मैं भगवान् को साच्छी देकर कहता हूं, जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा जरूर, मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊंगा, इसीलिए आया हूं। तेरे घर वाले तो बहुत बिगड़े होंगे?

'दादा तो मेरी जान लेने पर ही उतारू थे।'

'सच।'

'तीनों जने यहां चढ़ आए थे। अम्मां ने ऐसा डांटा कि मुंह लेकर रह गए। हां, हमारे दो बैल खोल ले गए।'

'इतनी बड़ी जबर्दस्ती। और दादा कुछ बोले नहीं?'

'दादा अकेले किस-किससे लड़ते। गांव वाले तो नहीं ले जाने देते थे, लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गए, तो और लोग क्या करते?'

'तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही हैं?'

'खेती-बारी सब टूट गई। थोड़ी-सी पंडित महाराज के साझे में है। ऊख बोई ही नहीं गई।'

गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपये थे। उसकी गर्मी यों भी कम न थी। यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गई।

बोला-तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूं। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ने जायं। यह डाका है, खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जायेंगे तीनों। यों न देंगे, तो अदालत से लूंगा। सारा घमंड तोड़ दूंगा।

वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली-तो चले जाना, अभी