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196 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


आजकल पैसे-पैसे की तंगी है। ऊख के रुपये बाहर ही बाहर उड़ गए। अब तो मजूरी करनी पड़ती है। आज बेचारे खेत में बेहोस हो गए। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े हैं।'

मुंह-हाथ धोकर और खूब बाल बनाकर गोबर गांव की दिग्विजय करने निकला। दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। फिर और मित्रों से मिला। गांव में कोई विशेष परिवर्तन न था। हां, पटेश्वरी की नई बैठक बन गई थी और झिंगुरीसिंह ने दरवाजे पर नया कुआं खुदवा लिया था। गोबर के मन में विद्रोह और भी ताल ठोंकने लगा। जिससे मिला, उसने उसका आदर किया, और युवकों ने तो उसे अपना हीरो बना लिया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गए। साल ही भर में वह क्या से क्या हो गया था।

सहसा झिंगुरीसिंह अपने कुएंपर नहाते हुए मिल गए, गोबर निकला, मगर सलाम न किया, न बोला। वह ठाकुर को दिखा देना चाहता था, मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता।

झिंगुरीसिंह ने खुद ही पूछा-कब आए गोबर, मजे में तो रहे? कहीं नौकर थे लखनऊ में?

गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा-लखनऊ गुलामी करने नहीं गया था। नौकरी है तो गुलामी। मैं व्यापार करता था।

ठाकुर ने कुतूहल भरी आंखों से उसे सिर से पांव तक देखा-कितना रोज पैदा करते थे?

गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया-यही कोई ढाई-तीन रुपये मिल जाते थे। कभी चटक गई तो चार भी मिल गए। इससे बेसी नहीं।

झिंगुरी बहुत नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज्यादा न कमा पाते थे। और यह गंवार लौंडा सौ रुपये कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा हो गया। अब किस दावे से उस पर रोब जमा सकते थे? वर्ण में वह जरूर ऊंचे हैं, लेकिन वर्ण कौन देखता है। उससे स्पर्द्धा करने का यह अवसर नहीं, अब तो उसकी चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता है। बोले-इतनी कमाई कम नहीं है बेटा, जो खरच करते बने। गांव में तो तीन आने भी नहीं मिलते। भवनिया (उनके जेठे पुत्र का नाम था) को भी कहीं कोई काम दिला दो, तो भेज दें। न पढ़े न लिखे, एक न एक उपद्रव करता रहता है। कहीं मुनीमी खाली हो तो कहना, नहीं साथ ही लेते जाना। तुम्हारा तो मित्र है। तलब थोड़ी हो, कुछ गम नहीं। हां, चार पैसे की ऊपर की गुंजाइस हो।

गोबर ने अभिमान भरी हंसी से कहा-यह ऊपरी आमदनी की चाट आदमी को खराब कर देती है ठाकुर, लेकिन हम लोगों की आदत कुछ ऐसी बिगड़ गई है कि जब तक बेईमानी न करें, पेट ही नहीं भरता। लखनऊ में मुनीमी मिल सकती है, लेकिन हर एक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता है। में भवानी को किसी के गले बांध तो दूं, लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ लपकाया, तो वह तो मेरी गर्दन पकड़ेगा। संसार में इलम की कदर नहीं, ईमान की कदर है।

यह तमाचा लगाकर गोबर आगे निकल गया। झिंगुरी मन में ऐंठकर रह गए। लौंडा कितने घमंड की बातें करता है, मानो धर्म का अवतार ही तो है।

इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा रहे थे। गोबर को देखकर प्रसन्न होकर बोले-मजे में तो रहे गोबर? सुना, वहां कोई अच्छी जगह पा गए हो। मातादीन को भी किसी हीले से लगा दो न? भंग पीकर पड़े रहने के सिवा यहां और कौन काम है।