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गोदान : 201
 

इक्कीस

इक्कीस

देहातों में साल के छ: महीने किसी न किसी उत्सव में ढोल-मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती है, असाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन-भादों में कजलियां होती हैं। कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धमकियां और कारिंदे की गोलियां इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकतीं। घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं हैं, गांठ में पैसे नहीं हैं, कोई परवा नहीं। जीवन की आनंदवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकती, हंसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।

यों होली में गाने-बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी।वहीं भंग बनती थी। वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिंदा साहब के दस-पांच रुपये खर्च हो जाते थे। और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा करता?

लेकिन अबकी गोबर ने गांव के नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई हैं। गोबर के द्वार पर भंग घुट रही है, पान के बीड़े लग रहे हैं, रंग घोला जा रहा है, फर्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई है, पीसे कौन? ढोल-मजीरा सब मौजूद हैं, पर गाए कौन? जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा है, यहां भंग में गुलाबजल और केसर और बादाम की बहार है। हां हां, सेर-भर बादाम गोबर खुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता है, आंखें खुल जाती हैं। खमीरा तमाखू लाया है, खास बिसवां की। रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपये कमाना भी जानता है और खरच करना भी जानता है। गाड़कर रख लो, तो कौन देखता है? धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है जितने गाने वाले हैं, सबका नेतवा भी है। और गांव में न नाचने वालों की कमी है, न अभिनय करने वालों की। शोभा ही लंगड़ों की ऐसी नकल कर्ता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहो, उसकी बोले-आदमी की भी जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सेठ की-सभी की नकल कर सकता है। हां, बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है, मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मंगा दिया है, और उसकी नकलें देखने जोग होंगी।

यह चर्चा इतनी फैली कि सांझ से ही तमाशा देखने वाले जमा होने लगे। आसपास के गांवों से दर्शकों की टोलियां आने लगीं। दस बजते-बजते तीन-चार हजार आदमी जमा हो गए। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप भरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्लाट सिर, वही बड़ी मूंछें, और वही तोंद। बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं।

ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देखकर कहते हैं-अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान देख ले तो तड़प जाए। और ठकुराइन फूलकर कहती हैं, जभी तो नई नवेली लाए।

'उसे तो लाया हूं तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी?'

छोटी बीवी यह वाक्य सुन लेती है और मुंह फुलाकर चली जाती है।