दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुंह फेरे हुए जमीन पर बैठी है। ठाकुर बार-बार उसका मुंह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं-मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़ली?
'तुम्हारी लाड़ली जहां हो, वहां जाओ। मैं तो लौंडी हूं, दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आई हूं।'
‘तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया है।'
पहली ठकुराइन सुन लेती है और झाडू लेकर घर में घुसती है और कई झाडू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचाकर भागते हैं।
फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपये का दस्तावेज लिखकर पांच रुपये दिए, शेष नजराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।
किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपये देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पांच रुपये रख दिए जाते हैं तो वह चकराकर पूछता है-
'यह तो पांच ही हैं मालिक।'
'पांच नहीं, दस हैं। घर जाकर गिनना?'
'नहीं सरकार, पांच हैं।'
'एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं?'
'हां, सरकार।'
'एक तहरीर का?'
'हां, सरकार।'
'एक कागद का?'
'हां, सरकार।'
'एक दस्तूरी का?'
'हां, सरकार।'
'एक सूद का?'
'हां, सरकार।'
'पांच नगद, दस हुए कि नहीं?'
'हां, सरकार। अब यह पांचों मेरी ओर से रख लीजिए।'
'कैसा पागल है?'
'नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी करिया-करम के लिए।'
इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की-बारी-बारी से सबकी खबर ली गई। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न हो, और नकलें पुरानी हों, लेकिन गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हदय थे कि बेबात की बात में भी हंसते थे। रात-भर भंड़ैती होती रही और सताए हुए दिल, कल्पना में प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे। आखिरी नकल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे।