सबेरा होते ही जिसे देखो, उसी की जबान पर वही रात के गाने, वही नकल, वही फिकरे। मुखिये तमाशा बन गए। जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फिकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज आदमी थे, इसे दिल्लगी में लिया, मगर पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी। और पंडित दातादीन तो इतने तुनुक-मिजाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिंदा की तो बात ही क्या, रायसाहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हंसी उड़ाई जाय और अपने ही गांव में-यह उनके लिए असह्य था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब-के-सब भस्म हो जाते, लेकिन इस कलियुग में शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुग वाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आए और आंखें निकालकर बोले-क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरी? अब तो तुम अच्छे हो गए। मेरा कितना हरज हो गया, यह तुम नहीं सोचते।
गोबर देर में सोया था। अभी-अभी उठा था और आंखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज कान में पड़ी। पालागन करना तो दूर रहा, उलटे और हेकड़ी दिखाकर बोला-अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे। हमें अपनी ऊख भी तो बोनी है।
दातादीन ने सुरती फांकते हुए कहा-काम कैसे नहीं करेंगे? साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना हो छोड़ दें, करना हो करें। उसके पहले नहीं छोड़ सकते।
गोबर ने जम्हाई लेकर कहा-उन्होंने तुम्हारी गुलामी नहीं लिखी है। जब तक इच्छा थी, काम किया। अब नहीं इच्छा, नहीं करेंगे। इसमें कोई जबर्दस्ती नहीं कर सकता।
'तो होरी काम नहीं करेंगे?'
'तो हमारे रुपये सूद समेत दे दो तीन साल का सूद होता है सौ रुपया असल मिलाकर दो सौ होते हैं। हमने समझा था, तीन रुपये महीने सूद में कटते जाएंगे, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो। मेरे रुपये दे दो। धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो।
होरी ने दातादीन से कहा-तुम्हारी चाकरी से मैं कब इंकार करता हूं महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।
गोबर ने बाप को डांटा-कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहां कोई किसी का चाकर नही। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपये उधार दे दिए और उससे सूद में जिंदगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों। यह महाजनी नहीं है, खून चूसना है।
'तो रुपये दे दो भैया, लड़ाई काहे की, मैं आने रुपये ब्याज लेता हूं, तुम्हें गांव-घर का समझकर आध आने रुपये पर दिया था।'
'हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से ले लेना। एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता।'
'मालूम होता है, रुपये की गर्मी हो गई है।'
'गर्मी उन्हें होती है, जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे खूब याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपये दिए थे। उसके सौ हुए और अब सौ के दो सौ हो गए। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट- लूटकर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ। कुछ हद है। कितने दिन हुए होंगे