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पृष्ठ:गोदान.pdf/२०९

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गोदान : 209
 


न पीछे, सोचो कितना झंझट है।'

'परदेस में संगी-साथी निकल ही आते हैं अम्मां, और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे का गम खाओ, वही अपना। खाली हाथ तो मां-बाप भी नहीं पूछते।'

धनिया कटाक्ष समझ गई। उसके सिर से पांव तक आग लग गई। बोली-मां-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया?

'आखों देख रहा हूं।'

'नहीं देख रहे हो, मां-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हां, लड़के अलबत्ता जहां चार पैसे कमाने लगे कि मां-बाप से आंखें फेर लीं। इसी गांव में एक-दो नहीं, दस-बीस परताख दे दूं। मां-बाप करज-कवाम लेते हैं किसके लिए? लड़के- लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए?'

'क्या जाने तुमने किसके लिए करज लिया? मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना।'

'बिना पाले ही इतने बड़े हो गए?'

'पालने में तुम्हारा क्या लगा? जब तक बच्चा था, दूध पिला दिया। फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया। जो सबने खाया वही मैंने खाया। मेरे लिए दूध नहीं आता था, मक्खन नहीं बंधा था। और अब तुम भी चाहती हो, और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करज चुकाऊं, लगान दूं, लड़कियों का ब्याह करूं। जैसे मेरी जिंदगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है। मेरे भी तो बाल बच्चे हैं?

धनिया सन्नाटे में आ गई। एक क्षण में उनके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया। अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दु:ख दरिद्र सब दूर हो गया। जब से गोबर घर आया, उसके मुख पर हास की एक छटा खिली रहती थी। उसकी वाणी में मृदुता और प्यवहारों में उदारता आ गई थी। भगवान् ने उस पर दया की है, तो उसे सिर झुकाकर चलना चाहिए। भीतर की शांति बाहर सौजन्य बन गई थी। ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भांति सारे अरमान झुलस गए। उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गया? जिस नोका पर बैठकर इस जीवन-सागर को पार करना चाहती थी वह टूट गई थी, तो किस सुख के लिए जिए।

लेकिन नहीं। उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है। उसने कभी मां की बात का जवाब नहीं दिया, कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की। जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया, वही खा लेता था। वही भोला-भाला, शील-स्नेह का पुतला आज क्यों एसी दिल तोड़ने वाली बात कर रहा है? उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा। मां-बाप दानों ही उसका मुंह जोहते रहते हैं। उसने खुद ही लेन-देन की बात चलाई, नहीं उससे कौन कहता है कि तू मां बाप का देना चुका। मां-बाप के लिए यहां क्या कम सुख है कि वह इज्जत-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता-खाता है। उससे कुछ हो सके, तो मां-बाप की मदद कर दे। नहीं हो सकता, तो मां-बाप उसका गला न दबाएंगे। झुनिया को तो ले जाना चाहता है, खुसी से ले जाय। धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के खयाल से कहा था कि झुनिया को वहां ले जाने में उसे जितना आराम मिलेगा, उससे कहीं ज्यादा झंझट बढ़ जायगा। इसमें ऐसी कौन-सी लगने वाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा। हो न हो, यह आग झुनिया की लगाई है। वही बैठे-बैठ उसे यह मंतर पढ़ा रही है। यहां सौक-सिंगार करने को नहीं मिलता, घर का कुछ न कुछ