वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी, मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गए थे और डंके की चोट ऐलान कर
दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक-एक हजार ही क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जाय, मगर राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न जाने दूंगा। और
उन्हें अधिकारियों ने अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था। रायसाहब विचारशील थे,
चतुर थे, अपना नफा-नुकसान समझते थे, मगर राजपूत थे और पोतड़ों के रईस थे। वह चुनौती
पाकर मैदान से कैसे हट जाएं? यों इनमें राजा सूर्यप्रतापसिंह ने आकर कहा होता, भाई साहब, आप दो बार कौंसिल में जा चुके, अबकी मुझे जाने दीजिए, तो शायद रायसाहब ने उनका स्वागत किया होता। कौंसिल का मोह अब उन्हें न था, लेकिन इस चुनौती के सामने ताल ठोकने के
सिवा और कोई रह ही न थी। एक मसलहत और भी थी। मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास दिया
था कि आप खड़े हो जायं, पीछे राजा साहब से एक लाख की थैली लेकर बैठ जाइएगा। उन्होंने
यहां तक कहा था कि राजा साहब बड़ी खुशी से एक लाख दे देंगे, मेरी उनसे बातचीत हो चुकी
है, पर अब मालूम हुआ, राजा साहब रायसाहब को परास्त करने का गौरव नहीं छोड़ना चाहते
और इसका मुख्य कारण था, रायसाहब की लड़की की शादी कुंलर साहब से ठीक होना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक समझते थे। उधर रायसाहब
को ससुराली जायदाद मिलने की भी आशा थी। राजा साहब के पहलू में यह कांटा भी बुरी तरह
खटक रहा था। कहीं वह जायदाद इन्हें मिल गई-और कानून रायसाहब के पक्ष में था ही-तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो जायगा, इसलिए उनका धर्म था कि रायसाहब को
कुचल डालें और उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दें।
बेचारे रायसाहब बड़े संकट में पड़ गए थे। उन्हें यह संदेह होने लगा था कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर तंखा ने उन्हें धोखा दिया। यह खबर मिली थी कि अब वह राजा साहब के पैरोकार हो गए हैं। यह रायसाहब के घाव पर नमक था। उन्होंने कई बार तंखा को बुलाया था, मगर वह या तो घर पर मिलते ही न थे, राग आने का वादा करके भूल जाते थे। आखिर खुद उनसे मिलने का इरादा करके वह उनके पास जा पहुंचे। संयोग से मिस्टर तंखा घर पर मिल गए, मगर रायसाहब को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। यह वही मिस्टर तंखा हैं, जो रायसाहब के द्वार पर एक बार रोज हाजिरी दिया करते थे। आज इतना मिजाज हो गया है। जले बैठे थे। ज्योंही मिस्टर तंखा सजे-सजाए, मुंह में सिगार दबाए कमरे में आए और हाथ बढ़ाया कि रायसाहब ने बमगोला छोड़ दिया—मैं घंटे भर से यहां बैठा हुआ हूं और आप निकलते-निकलते अब निकले हैं। मैं इसे अपनी तौहीन समझता हूं।
मिस्टर तंखा ने एक सोफे पर बैठकर निश्चिंत भाव से धुआं उड़ाते हुए कहा-मुझे इसका खेद है। मैं एक जरूरी काम में लगा था। आपको फोन करके मुझसे समय ठीक कर लेना चाहिए था।
आग में घी पड़ गया, मगर रायसाहब ने क्रोध को दबाया। वह लड़ने न आए थे। इस अपमान को पी जाने का ही अवसर था। बोले-हां, यह गलती हुई। आजकल आपको बहुत कम फुरसत रहती है शायद।
'जी हां, बहुत कम, वरना मैं अवश्य आता।'
'मैं मुआमले के बारे में आपसे पूछने आया था। समझौते की तो कोई आशा नहीं