कभी कुछ, कभी कुछ यह सोच-सोचकर उसे झुनिया पर क्रोध आता। गोबर के लिए अब भी उसके मन में वही ममता थी। इसी चुडै़ल ने उसे कुछ खिला-पिलाकर अपने बस में कर लिया। ऐसी मायाबिनी न होती, तो यह टोना ही कैसे करती? कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। यह भुग्गा मिल गया तो आज रानी हो गई।
होरी ने चिढ़कर कहा-जब देखो तब झुनिया ही को दोस देती है। यह नहीं समझती कि अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोष? गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप-से-आप चली जाती? सहर का दाना-पानी लगने से लौंडे की आंखें बदल गईं, ऐसा क्यों नहीं समझ लेती।
धनिया गरज उठी-अच्छा, चुप रहो। तुम्हीं ने राँड को मूड़ पर चढ़ा रखा था, नहीं मैंने पहले ही दिन झाडू मारकर निकाल दिया होता।
खलिहान में डाठें जमा हो गई थीं। होरी बैलों को जुखरकर अनाज मांड़ने जा रहा था। पीछे मुंह फेरकर बोला-मान ले, बहू ने गोबर को फोड़ ही लिया, तो तू इतना कुढ़ती क्यों है? जो सारा जमाना करता है, वही गोबर ने भी किया। अब उसके बाल-बच्चे हुए। मेरे बाल-बच्चों के लिए क्यों अपनी सांसत कराए, क्यों हमारे सिर का बोझ अपने सिर रखे।
'तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो।'
'तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों को अनाज मांड। मैं हुक्का पीता हूं।'
'तुम चलकर चक्की पीसो, मैं अनाज मांडूंगी।'
विनोद में दु:ख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न होकर रूपा के बाल गूंधने बैठ गई, जो बिल्कुल उलझकर रह गए थे और होरी खलिहान चला। रसिक बसंत सुगंध और प्रमोद और जीवन की विभूति लुटा रहा था, दोनों हाथों दिल खोलकर कोयल आम की डालियों में छिपी अपनी रसीली, मधुर, आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बारात-सी लगी बैठी थी। नीम और सिरस और करौंदे अपनी महक में नशा-सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग में पहुंचा तो वृक्षों के नीचे तारे से खिले थे। उसका व्यथित, निराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्फूर्ति में जैसे डूब गया। तरंग में आकर गाने लगा-
'हिया जरत रहत दिन-रैन।
आम की डरिया कोयल बोले,
तनिक न आवत चैन।'
सामने से दुलारी सहुआइन गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थी। पांव में मोटे चांदी के कड़े थे, गले में मोटे सोने की हंसली, चेहरा सूखा हुआ, पर दिल हरा। एक समय था, जब होरी खेत-खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थी, होरी देवर था, इस नाते दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गए, दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दूकान पर बैठी रहती थी और वहीं से सारे गांव की खबर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जाय सहुआइन वहां बीच बचाव करने के लिए अवश्य पहुंचेगी। आने रुपये सूद से कम पर रुपये उधार न देती थी। और यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था-जो रुपये लेता, खाकर बैठ रहता-मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करे? नालिश-फरियाद करने से रही, थाना-पुलिस करने से रही, केवल जीभ का बल था, पर ज्यों-ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेजी बढ़ती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी।