पृष्ठ:गोदान.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
गोदान : 229
 


सिलिया प्रसन्न मुख बोली-तुम काहे को आओगे पंडित। मैं संझा तक सब ओसा दूंगी।

'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊं। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी?'

'तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा दूंगी, ढोकर रख भी आऊंगी। पहर रात तक यहां दाना भी न रहेगा।'

दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दूकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लाई थी। अभी तक पैसे न दिए थे। सिलया के पास आकर बोली-क्यों री सिलिया, महीना भर रंग लाए हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिए? मांगती हूं तो मटककर चली जाती है। आज मैं बिना पैसे लिए न जाऊंगी।

मातादीन चुपके-से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आंख उठाकर देखा तो मातादीन वहां न था। बोली-चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी।

उसने अंदाज से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के फैले हए अंचल में डाल दिया। उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अंचल पकड़कर बोला-अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है।

फिर उसने लाल आंखों से सिलिया को देखकर डांटा-तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछकर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली?

सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुंह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चित बैठी हुई थी, वह टूट गई और अब वह निराधार नीचे गिरे जा रही है। खिसियाए हुए मुंह से, आंखों में आंसू भरकर सहुआइन से बोली-तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूंगी सहुआइन। आज मुझ पर दया करो।

सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार-भरी-आंखों से देखती हुई चली गई।

तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत स्वर से पूछा-तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख़्तियार नहीं है?

मातादीन आंखें निकालकर बोला-नहीं, तुझे कोई अख्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो चाहे कि खा भी लुटा भी, तो यह यहां न होगा। अगर तुझे यहां न परत पड़ता हो तो कहीं और जाकर काम कर । मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में काम नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं।

सिलिया ने उस पक्षी की भांति, जिसे मालिक ने पर काटकर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भर्त्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षो की भांति उसका मन फड़फड़ा रहा था और ऊंची डाल पर उन्मुक्त वायुमंडल में उड़ने की शक्ति न पाकर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकराकर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है। वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा