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234 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा-बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे, और क्या करेंगे। कोई उसकी दबैल हूं? उसकी इज्जत ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि कसाई। यह उसकी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे। अब कहते हैं, मुझसे कोई वास्ता नहीं।'

होरी के विचार में धनिया गलत कर रही थी। सिलिया के घर वालों ने मतई को कितना बेधरम कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मारकर ले जाते, चाहे दुलारकर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया?

धनिया ने फटकार बताई-अच्छा रहने दो, बड़े न्यायी बनते हो। मरद-मरद सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम किया, तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गए तो क्यों बुरा लगता है। क्या सिलिया का धरम, धरम ही नहीं? रखी तो चमारिन, उस पर नेक धरमी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सजा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न जाने कैसे बेदरद मां-बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती हूं।

होरी घर चला गया और सिलिया धनिया के पैरों पर गिरकर रोने लगी।


चौबीस

सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फिक्र में था, पर हाथ खाली होने से कोई काबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे खेत गिरों रखने पड़े। और अकेले होरी की बात चलती, तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बांधकर खर्च करो, दो-ढाई सौ लग जायंगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ-दो सौ दिये कोई कुलीन बर न मिल सकता था। पिछले साल चैती में कछ मिला था तो पंडित दातादीन का आधा साझा, मगर पंडितजी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्यौरा बताया कि होरी के हाथ एक-चौथाई से ज्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फसल नष्ट हो गई, सन तो वर्षा अधिक होने और ऊब दीमक लग जाने के कारण। हां, इस साल चैती अच्छी थी और ऊख भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था, दो सौ रुपये भी हाथ आ जायं। तो कन्या-ऋण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपये की मदद कर दे, तो बाकी सौ रुपये होरी को आसानी से मिल जायंगे। झिंगुरीसिंह और मंगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गए थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपये मारे न जा सकते थे।

एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।

मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं।