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गोदान : 235
 


होरी ने झुंझलाकर कहा-लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता?

धनिया सिर हिलाकर बोली-मान लो, गोबर परदेस न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी की जबान बंद हो गई। एक क्षण बाद बोला-मैं तो तुझसे पूछता हूं।

धनिया ने जान बचाई-यह सोचना मरदों का काम है।

होरी के पास जवाब तैयार था—मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब क्या करती? वह कर।

धनिया ने तिरस्कार-भरी आंखों से देखा-तब मैं कुस-कन्या भी दे देती तो कोई हंसने वाला न था।

कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था, लेकिन कुल-मर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आए थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा-गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आए थे। आज भी बिरादरी में उसका नाम है। दस गांव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या देकर वह किसे मुंह दिखाएगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालो हैं, जमीन है और थोड़ी-सी साख भी है, अगर वह एक बीघा भी बेच दे, तो सौ मिल जायं, लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही बीघे तो उसके पास है, अगर एक बीघा बेच दे, ता फिर खेती कैसे करेगा?

कई दिन इसी हैस-बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।

दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरीसिंह, पटेश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आए थे। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गए थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियां हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत बिंदेसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और लैला बने घूमते। वे दिन में कई कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख-देखकर होरी का खून सूखता जाता था, मानों उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओले वाले पीले बादल उठे चले आते हों।

एक दिन तीनों उसी कुएं पर नहाने जा पहुंचे, जहां होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का खून खौल उठा।

उसी सांझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया होती है, शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सूद पर रुपये दे दे। मगर दुलारी अपना ही रोना ले बैठी। गांव में ऐसा कोई घर न था, जिस पर उसके कुछ रुपये न आते हों, यहा तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपये आते थे, लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहां से रुपये लाए?

होरी ने गिड़गिड़ाकर कहा-भाभी, बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपये न दोगी, मेरे गले की फांसी खोल दोगी, झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दांत लगाए हुए हैं। मैं सोचता हूं,