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236 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


बाप-दादा की यही तो निसानी है, यह निकल गई, तो जाऊंगा कहां? एक सपूत वह होता है कि घर की संपत बढ़ाता है, मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाडू फेर दूं?

दुलारी ने कसम खाई-होरी, मैं ठाकुरजी के चरन छूकर कहती हूं कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लिया, वह देता नहीं, तो मैं क्या करूं? तुम कोई गैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की है, लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपये लिए। उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं, उसकी घरवाली से मांगो तो लड़ने के लिए तैयार। सोभा भी देखने में बड़ा सीधा-सादा है, लेकिन पैसा देना नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहीं, दें कहां से। सबकी दशा देखती हूं, इसी मारे सबर कर जाती हूं। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं, और क्या? खेती-बारी बेचने की मैं सलाह न दूंगी। कुछ नहीं है, मरजाद तो है।

फिर कनफुसकियों में बोली-पटेसरी लाला का लड़का तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गए, गांव का भाई-चारा क्या समझें? लड़के गांव में भी हैं, मगर उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है, कुछ डर है। ये सब तो छूटे सांड हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आई थी, मैंने इन सबों के ढंग देखकर उसके ससुर को बुलाकर विदा कर दिया। कोई कहां तक पहरा दे।

होरी को मुस्कराते देखकर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा-हंसोगे होरी, तो मैं भी कुछ कह दूंगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थे? दिन में पचीसों बार किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थे, मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।

होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा-यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी। मैं बिना कुछ रस पाए थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आंगन में आती है।

'चल झठे।'

'आंखों से न ताकती रही हो, लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था, बल्कि बुलाता था।'

'अच्छा रहने दो, बड़े आए अंतरजामी बनके। तुम्हें बार-बार मंडराते देखके मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम कोई ऐसे बांके जवान न थे।'

हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बंद हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने कहा-गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते? देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।

होरी निराश मन से बोला-वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आंखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था, लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊं, तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।

दुलारी ने कटाक्ष करके कहा-तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गए।

'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता?'

'मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच।'

'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ मैं लिखता हूं, इन दामों मंहगा नहीं हूं।'

'तब धनिया से तो न बोलोगे?'

'नहीं, कहो कसम खाऊं।'