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240 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


'एक कोने में नहीं पड़ी हुई है, एक पूरी कोठरी लिए हुए है।'

'तो उस कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपये महीना।'

'उसका किराया एक पैसा नहीं। हमारे घर में रहती है, जहां जाय पूछकर जाय। आज आती है तो खबर लेता हूं।'

पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी और सोना मोट ले रही थी। रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थी, और सोना सशंक आंखो से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थी, आशा भी थी, शंका अधिक थी, आशा कम, सोचती थी, उन लोगों को रुपये मिल रहे हैं, तो क्यों छोड़ने लगे? जिनके पास पैसे हैं, वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया है, धरम है, लेकिन बाप की जो इच्छा होगी, वही उसे माननी पड़ेगी, मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ कहेगी, जाकर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर, तुझ जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा कहीं गौरी महतो मान गए, तो वह उनके चरन धो-दोकर पिएगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर-पेट मिठाई खिलाएगी। गोबर ने उसे जो रुपया दिया था, उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आंखें चमक उठीं और कपोलों पर हल्की-सी लाली दौड़ गई।

मगर सिलिया अभी तक आई क्यों नहीं? कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा। वह आ रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुंह धो रखो।

सिलिया आई जरूर, पर कुएं पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थी होरी पूछेंगे कहां थी अब तक, तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घंटे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुंची।

'वहां जाकर तू मर गई थी क्या। ताकते-ताकते आंखें फूट गईं।'

सिलिया को बुरा लगा-तो क्या मैं वहां सोती थी? इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवसर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढोर चराने गए थे। खोजती-खोजती उसके पास गई और तेरा संदेसा कहा। ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूं। मेरे पांव पर गिर पड़ा और बोला-सिल्लो, मैंने जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही है, तब से आंखों की नींद हर गई है। उसकी वह गालियां मुझे फल गईं, लेकिन काका को क्या करूं? किसी को नहीं सुनते।

सोना ने टोका-तो न सुनें। सोना भी जिद्दिन है। जो कहा है, वह कर दिखाएगी। फिर हाथ मलते रह जायंगे।

'बस, उसी छन ढोरों को वहीं छोड़, मुझे लिए हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआं भी उन्हीं का है। दस बीघे का ऊख है। महतो को देखके मुझे हंसी आ गई, जैसे कोई घसियारा हो। हां, भाग का बली है। बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुई। गौरी महतो कहते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चाहे कुछ लूं या न लें, तू कौन होता है बोलने वाला? मथुरा कहता था, तुमको लेना-देना है, तो मेरा ब्याह मत करो, मैं अपना ब्याह जैसे चाहूंगा, कर लूंगा। बात बढ़ गई और गौरी महतो ने पनहियां उतारकर मथुरा को खूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खाकर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक घूसा भी जमा देता, तो महतो फिर न