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248 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


दो-चार बार उसने तकाजा किया, घुड़का-डांटा भी, मगर होरी की दशा देखकर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँं भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जाएंगे, ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मंगरू को सुझाया कि अगर इस वक्त होरी पर दावा कर दिया जाय, तो सब रुपए वसूल हो जायं। मंगरू इतना दयालु नहीं, जितना आलसी था। झंझट में पड़ना न चाहता था, मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा, न कोई दूसरा कष्ट होगा, बैठे-बिठाए उसकी डिगरी हो जाएगी, तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी, और अदालत-खर्च के लिए रुपए भी दे दिए।

होरी को खबर भी न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआ, कब डिगरी हुई, उसे बिल्कुल पता न चला। क़ुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया, तब उसे मालूम हुआ। सारा गांव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मंगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियां देने लगी। उसकी सहज-बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी है, मगर मंगरू साह पूजा पर थे, मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम हो गई और बोली भी हो गई मंगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियां सुनने का साहस न था।

धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा-बैठे क्या हो, जाकर पटवारी से पूछते क्यों नहीं, यही धरम है तुम्हारा गांव-घर के आदमियों के साथ?

होरी ने दीनता से कहा -- पूछने के लिए तूने मुंह भी रखा हो। तेरी गालियां क्या उन्होंने न सुनी होंगी?

'जो गाली खाने का काम करेगा, उसे गालियां मिलेंगी ही।'

'तू गालियां भी देगी और भाई-चारा भी निभाएगी?'

'देखूंगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है।'

'मिल वाले आकर काट ले जायंगे, तू क्या करेगी, और मैं क्या करूंगा। गालियां देकर अपनी जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।'

'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?'

'हाँ-हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गांव मिलकर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज मेरी नहीं, मंगरू साह की है।'

'मँगरू साह ने मर-मरकर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी?'

'वह सब तूने किया, मगर अब वह चीज मंगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं?'

ऊख तो गई, लेकिन उसके साथ ही एक नई समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने पर तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे। सोचा था, ऊख के पुराने रुपए मिल जाएंगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नजर में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियां कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असम्भव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-बिनती हो सकती थी, वह कर चुका, मगर वह पत्थर की देवी जरा भी न पसीजी। उसने चलते-चलते हाथ बांध कर कहा -दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए लेकर भाग न जाऊंगा। न इतनी जल्द