मरा ही जाता हूं। खेत हैं, पेड़-पालों हैं, घर हैं, जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जायंगे, मेरी इज्जत जा रही है, इसे संभालो। मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया। अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।
होरी ने घर आकर धनिया से कहा-अब?
धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला-यही तो तुम चाहते थे।
होरी ने जख्मी आंखों से देखा-मेरा ही दोस है?
'किसी का दोस हो, हुई तुम्हारे मन की।'
'तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूं?'
'जमीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या?'
'मजूरी।'
मगर जमीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आबरू अवलिम्बत थी। जिसके पास जमीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है। होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा-तो क्या कहती है?
धनिया ने आहत कंठ से कहा-कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयंगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हंसेगी, हंस ले। भगवान् की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुंह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।
सहसा नोहरी चुंदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने जरा-सा घूँघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।
धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा-आज किधर चली समधिन? आओ, बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गई।
धनिया ने उसे सिर से पांव तक आलोचना की आंखों से देखकर कहा-आज इधर कैसे भूल पड़ीं?
नोहरी ने कातर स्वर में कहा-ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आई। बिटिया का ब्याह कब तक है?
धनिया स्निग्ध भाव से बोली-भगवान् के अधीन है, जब हो जाय।
'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी है?'
'हां, तिथि तो ठीक हो गई है।'
'मुझे भी नेवता देना।'
'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा?'
'दहेज का सामान तो मंगवा लिया होगा। जरा मैं भी देखूं।'
धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे संभाला-अभी तो कोई सामान नहीं मंगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है।
नोहरी ने अविश्वास-भरी आंखों से देखा-कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो।