था, वह उससे जितना सुख पाती थी, उससे कहीं ज्यादा कष्ट पाती थी।जब लल्लू उसके मन
में आ बैठा था, शांत, स्थिर, सुशील, सुहास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनंद था, जिसमें
प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बाहर वाला लल्लू उसके भीतर वाले लल्लू का प्रतिबिंब मात्र
था। प्रतिबिंब सामने न था, जो असत्य था, अस्थिर था। सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी
आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दूध की जगह वह उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर पाल
रही थी। उसे अब वह बंद कोठरी, और वह दुर्गंधमयी वायु और वह दोनों जून धुएं में जलना,
इन बातों का मानो ज्ञान ही न रहा। वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई जैसे उसे शक्ति प्रदान करती
रहती। जीते-जी जो उसके जीवन का भार था, मरकर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी
सारी ममता अंदर जाकर बाहर से उदासीन हो गई। गोबर देर में आता है या जल्द, रुचि से भोजन
करता है या नहीं, प्रसन्न है या उदास, इसकी अब उसे बिल्कुल चिंता न थी। गोबर क्या कमाता
हैं और कैसे खर्च करता है, इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो कुछ था, भीतर था,
बाहर वह केवल निर्जीव यंत्र थी।
उसके शोक में भाग लेकर, उसके अंतर्जीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का अंग बन सकता था, पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आकर ही प्यासा लौट जाता था।
एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा-तो लल्लू के नाम को कब तक रोए जाएगी। चार-पांच महीने हो गए।
झुनिया ने ठंढी सांस लेकर कहा-तुम मेरा दु:ख नहीं समझ सकते। अपना काम देखो। मैं जैसी हूं, वैसी पड़ी रहने दो।
'तेर रोते रहने से लल्लू लौट आएगा?'
झुनिया के पास कोई जवाब न था। वह उठकर पताली में कचालू के लिए आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था।
इस बेदर्दी ने उसके लल्लू को उसके मन में और भी सजग कर दिया। लल्लू उसी का है, उसमें किसी का साझा नहीं, किसी का हिस्सा नहीं। अभी तक लल्लू किसी अंश में उसके हृदय के बाहर भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्योति थी। अब वह संपूर्ण रूप से उसका था।
गोबर ने खोंचे से निराश होकर शक्कर के मिल में नौकरी कर ली थी। मिस्टर खन्ना ने पहले मिल से प्रोत्साहित होकर हाल में यह दूसरा मिल खोल दिया था। गोबर को वहां बड़े सबेरे जाना पड़ता, और दिन-भर के बाद जब वह दिया-जले घर लौटता, तो उसकी देह में जरा भी जान न रहती भी। घर पर भी उसे इससे कम मेहनत न करनी पड़ती थी, लेकिन वहां उसे जरा भी थकन न होती थी। बीच-बीच में वह हंस-बोल भी लेता था। फिर उस खुले मैदान में, उन्मुक्त आकाश के नीचे, जैसे उसकी क्षति पूरी हो जाती थी। वहां उसकी देह चाहे जितना काम करे, मन स्वच्छंद रहता था। यहां देह को उतनी मेहनत न होने पर भी जैसे उस कोलाहल, उस गति और तूफानी शोर का उस पर बोझ सा लदा रहता था। यह शंका भी बनी रहती थी कि न जाने कब डांट पड़ जाय। सभी श्रमिकों की यही दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपनी दैहिक थकन और मानसिक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर आता तो नशे में चूर और पहर रात गए। और आकर कोई-न-कोई बहाना खोजकर झुनिया
को गालियां देता, घर से निकालने लगता और कभी-कभी पीट भी देता।