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गोदान : 259
 


यह होनी चाहिए कि उन्हें एक भी नया आदमी न मिले। यही हमारी फतह होगी।

'बिजली' कार्यालय में उसी वक्त खतरे की मीटिंग हुई, कार्यकारिणी समिति का भी संगठन हुआ, पदाधिकारियों का चुनाव हुआ और आठ बजे रात को मजूरों का लंबा जुलूस निकला। दस बजे रात को कल का सारा प्रोग्राम तय किया गया और यह ताकीद कर दी गई कि किसी तरह का दंगा-फसाद न होने पाए।

मगर सारी कोशिश बेकार हुई। हड़तालियों ने नए मजूरों का टिड्डी-दल मिल के द्वार पर खड़ा देखा, तो इनकी हिंसावृत्ति काबू से बाहर हो गई। सोचा था, सौ-सौ, पचास-पचास आदमी रोज भर्ती के लिए आएंगे। उन्हें समझा-बुझाकर या धमकाकर भगा देंगे। हड़तालियों की संख्या देखकर नए लोग आप ही भयभीत हो जाएंगे, मगर यहां तो नक्शा ही कुछ और था, अगर यह सारे आदमी भर्ती हो गए, तो हड़तालियों के लिए समझौते की कोई आशा ही न थी। तय हुआ कि नए आदमियों को मिल में जाने ही न दिया जाय। बल-प्रयोग के सिवा और कोई उपाय न था। नया दल भी लड़ने-मरने पर तैयार था। उनमें अधिकांश ऐसे भुखमरे थे, जो इस अवसर को किसी तरह भी न छोड़ना चाहते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखने से तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति में लड़कर मरें। दोनों दलों में फौजदारी हो गई। 'बिजली' संपादक तो भाग खड़े हुए। बेचारे मिर्जाजी पिट गए और उनकी रक्षा करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो गया। मिर्जाजी पहलवान आदमी थे और मंजे हुए फिकैत, अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया। गोबर गंवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता था, पर अपनी रक्षा करना न जानता था, जो लड़ाई में मारने से ज्यादा महत्व की बात है। उसके एक हाथ की हड्डी टूट गई, सिर खुल गया और अंत में वह वहीं ढेर हो गया। कधों पर अनगिनती लाठियां पड़ी थीं, जिससे उसका एक-एक अंग चूर हो गया था। हड़तालियों ने उसे गिरते देखा, तो भाग खड़े हुए। केवल दस-बारह जंच हुए आदमी मिर्जा को घेरकर खड़े रहे। नए आदमी विजय पताका उड़ाते हुए मिल में दाखिल हुए और पराजित हड़ताली अपने हताहतों को उठा उठाकर अस्पताल पहुंचाने लगे, मगर अस्पताल में इतने आदमियों के लिए जगह न थी। मिर्जाजी तो ले लिए गए। गोबर की मरहम-पट्टी करके उसके घर पहुंचा दिया गया।

झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखी, तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब तक उसने उसे सबल के रूप में देखा था, जो उस पर शासन करता था, डांटता थी, मारता था। आज वह अपंग था, निस्सहाय था, दयनीय था। झुनिया ने खाट पर झुककर आंसू-भरी आंखों से गोबर को देखा और घर की दशा का खयाल करके उसे गोबर पर एक ईर्ष्यामय क्रोध आया। गोबर जानता था कि घर में एक पैसा नहीं है। वह यह भी जानता था कि कहीं से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है। यह जानते हुए भी उसके बार-बार समझाने पर भी, उसने यह विपत्ति अपने ऊपर ली। उसने कितनी बार कहा था-तुम इस झगड़े में न पड़ो। आग लगाने वाले आग लगाकर अलग हो जाएंगे, जायगी गरीबों के सिर, लेकिन वह कब उसकी सुनने लगा था। वह तो उसकी बैरिन थी। मित्र तो यह लोग थे, जो अब मजे से मोटरों में घूम रहे हैं। उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि थी, जैसे हम उन बच्चों को कुरसी से गिर पड़ते देखकर, जो बार-बार मना करने पर खड़े होने से बाज न आते थे, चिल्ला उठते हैं-अच्छा हुआ, बहुत अच्छा, तुम्हारा सिर क्यों न दो हो गया।

लेकिन एक ही क्षण में गोबर का करुण-क्रंदन सुनकर उसकी सारी संज्ञा सिहर उठी। व्यथा में डूबे हुए शब्द उसके मुंह निकले-हाय-हाय। सारी देह भुरकुस हो गई। सबों को तनिक भी दया न आई।