खन्ना ने अधीर होकर कहा-लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल की भेंट कर दिया है और इसके नफे के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है।
मेहता ने इस भाव से जवाब दिया, जैसे इस दलील का उनकी नजरों में कोई मूल्य नहीं है-जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता है, वह इतना दरिद्र नहीं होता कि उसके नफे ही का जीवन का आधार समझे। हो सकता है। कि नफा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जाय, लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैं, उनका हक उन लोगों से ज्यादा है, जो केवल रुपया लगाते हैं।
यही बात पडत ओंकारनाथ ने कही थी। मिर्जा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहां तक कि गोविन्दी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया था, पर खन्नाजी ने उन लोगों की परवा न की थी, लेकिन मेहता के मुंह से वही बात सुनकर वह प्रभावित हो गए। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थे, मिर्जा खुर्शेद को गैरजिम्मेदार और गोविन्दी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्र अध्ययन और सद्भाव की शक्ति थी।
सहसा मेहता ने पूछा-आपने अपनी देवीजी से भी इस विषय में राय ली?
खन्ना ने सकुचाते हुए कहा-हां पूछा था।
'उनकी क्या राय थी?'
'वही जो आपकी है।'
'यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं। उसी वक्त मालती आ पहुंची और खन्ना को देखकर बोली-अच्छा आप विराज रहे हैं? मैंने मेहताजी को आज दावत की है। सभी चीजें अपने हाथ से पकाई हैं। आपको भी नेवता देती हूं। गोविन्दी देवी में आपका यह अपराध क्षमा करा दूंगी।
खन्ना को कौतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी है? मालती, वही मालती, जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थी, जो खुद कभी बिजली का बटन नहीं दबाती थी, विलास और विनोद ही जिसका जीवन था।
मुस्कराकर कहा-अगर आपने पकाया है तो जरूर खाऊंगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक-कला में भी निपुण हैं।
मालती नि:संकोच भाव से बोली-इन्होंने मार मारकर वैद्य बना दिया। इनका कासे टाल देती? पुरुष देवता ठहरे।
खन्ना ने इस व्यंग्य का आनंद लेकर मेहता की ओर आंखें मारते हुए कहा-पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।
मालती झेंपी नहीं। इस संकेत का आशय समझकर जोश-भरे स्वर में बोली-लेकिन अब हो गई हूं, इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा था, उससे यह कहीं सुंदर है। पुरुष इतना सुंदर, इतना कोमल हृदय....
मेहता ने मालती की ओर दीन-भाव से देखा और बोले-नहीं मालती, मुझ पर दया करो, नहीं मैं यहां से भाग जाऊंगा।
इन दिनों जो कोई मालती से मिलता वह उससे मेहता की तारीफों के पुल बांध देती, जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढिंढोरा पीटता फिरे। सुरुचि का ध्यान भी उसे न