तो उसके पीछे डंडा लिए फिर रहे थे। इज्जत बिगड़ी जाती थी। अब इज्जत नहीं बिगड़ती।
होरी को भोला पर दया आ रही थी। बेचारा इस कुलटा के फेर में पड़कर अपनी जिंदगी बरबाद किए डालता है। छोड़कर जाय भी, तो कैसे? स्त्री को इस तरह छोड़कर जाना क्या सहज है? यह चुडैल उसे वहां भी तो चैन से न बैठने देगी। कहीं पंचायत करेगी, कहीं रोटी-कपड़े का दावा करेगी। अभी तो गांव ही के लोग जानते हैं। किसी को कुछ कहते संकोच होता है। कनफुसकियां करके ही रह जाते हैं। तब तो दुनिया भी भोला ही को बुरा कहेगी। लोग यही तो कहेंगे कि जब मर्द ने छोड़ दिया, तो बेचारी अबला क्या करे? मर्द बुरा हो, तो औरत की गर्दन काट लेगा। औरत बुरी हो, तो मर्द के मुंह में कालिख लगा देगी।
इसके दो महीने बाद एक दिन गांव में यह खबर फैली कि नोहरी ने मारे जूतों के भोला की चांद गंजी कर दी।
वर्षा समाप्त हो गई थी और रबी बोने की तैयारियां हो रही थीं। होरी की ऊख तो नीलाम हो गई थी। ऊख के बीज के लिए उसे रुपये मिले और ऊख न बोई गई। उधर दाहिना बैल भी बैठाऊ हो गया था और एक नए बैल के बिना काम न चल सकता था। पुनिया का एक बैल नाले में गिरकर मर गया था, तब से और भी अड़चन पड़ गई थी। एक दिन पुनिया के खेत में हो जाता, एक दिन होरी के खेत में। खेतों की जुताई जैसी होनी चाहिए, वैसी न हो पाती थी।
होरी हल लेकर खेत में गया, मगर भोला की चिंता बनी हुई थी। उसने अपने जीवन में भी यह न सुना था कि किसी स्त्री ने अपने पति को जूते से मारा हो। जूतों से क्या, थप्पड़ या घूंसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती थी, और आज नोहरी ने भोला को जूतों से पीटा और सब लोग तमाशा देखते रहे। इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छूटे। अब तो भोला को कहीं डूब ही मरना चाहिए। जब जिंदगी में बदनामी और दुरदसा के सिवा और कुछ न हो, तो आदमी का मर जाना ही अच्छा। कौन भोला के नाम को रोने वाला बैठा है। बेटे चाहे किरिया-करम कर दें, लेकिन लोक-लाज के बस, आंसू किसी की आंख में न आएगा। तिरसना के बस में पड़कर आदमी इस तरह अपनी जिंदगी चौपट करता है। जब कोई रोने वालाही नहीं, तो फिर जिंदगी का क्या मोह और मरने से क्या डरना।
एक यह नोहरी है और यह एक चमारिन है सिलिया। देखने-सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे दो को खिलाकर खाए और राधिका बनी घूमे, लेकिन मजूरी करती है, भूखों मरती है और मतई के नाम पर बैठी है, और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता। कौन जाने, धनिया मर गई होती, तो आज होरी की भी यही दशा होती। उसकी मौत की कल्पना ही से होरी को रोमांच हो उठा। धनिया की मूर्ति मानसिक नेत्रों के सामने आकर खड़ी हो गई-सेवा और त्याग की देवी। जबान की तेज, पर मोम-जैसा हृदय, पैसे-पैसे के पीछे प्राण देने वाली, पर मर्यादा रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार। जवानी में वह कम रूपवती न थी। नोहरी उसके सामने क्या है? चलती थी, तो रानी-सी लगती थी। जो देखता था, देखता ही रह जाता था। यही पटेश्वरी और झिंगुरी तब जवान थे। दोनों धनिया को देखकर छाती पर हाथ रख लेते थे। द्वार के सौ-सौ चक्कर लगाते थे। होरी उनकी ताक में रहता था, मगर छेड़ने का कोई बहाना न पाता था, उन दिनों घर में खाने-पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भूसा तक न हुआ था। लोग झड़बेरियां खा-खाकर दिन काटते थे। होरी को कहत के कैंप में काम करने जाना पड़ता था। छ: पैसे रोज मिलते थे। धनिया घर में अकेली ही रहती थी, कभी किसी