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गोदान : 275
 


सिलिया ने सोचा, सोना का जीवन कितना सुखी है।

सोना उठकर आंगन में आ गई थी, मगर सिल्लो से टूटकर गले नहीं मिली। सिल्लो ने समझा, शायद मथुरा के खड़े रहने के कारण सोना संकोच कर रही है। या कौन जाने, उसे अब अभिमान हो गया हो-सिल्लो चमारिन से गले मिलने में अपना अपमान समझती हो। उसका सारा उत्साह ठंडा हो गया। इस मिलन से हर्ष के बदले उसे ईर्ष्या हुई। सोना का रंग कितना खुल गया है, और देह कैसी कंचन की तरह निखर आई है। गठन भी सुडोल हो गया है। पर गृहिणीत्व की गरिमा के साथ युवती की सहास छवि भी है। सिल्लो एक क्षण के लिए जैसे मंत्र-मुग्ध-सी खड़ी ताकती रह गई। यह वही सोना है, जो सूखी-सी देह लिए, झोंटे खोले इधर-उधर दौड़ा करती थी। महीनों सिर में तेल न पड़ता था। फटे चिथड़े लपेटे फिरती थी। आज अपने घर की रानी है। गले में हंसुली और हुमेल है, कानों में करनफूल और सोने की बालियां, हाथों में चांदी के चूड़े और कंगन। आंखों में काजल है, मांग में सेंदुर। सिलिया के जीवन का स्वर्ग यहीं था, और सोना को वहां देखकर वह प्रसन्न न हुई। इसे कितना घमंड हो गया है। कहां सिलिया के गले में बांहें डाल घास छीलने जाती थी, और आज सीधे ताकती भी नहीं। उसने सोचा था, सोना उसके गले लिपटकर जरा-सा रोएगी, उसे आदर से बेठाएगी, उसे खाना खिलाएगी, और गांव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नए जीवन के अनुभव बयान करेगी-सोहागरात और मधुर मिलन की बातें होंगी। और सोना के मुंह में दही जमा हुआ है। वह यहां आकर पछताई।

आखिर सोना ने रूखे स्वर में पूछा-इतनी रात को कैसे चलीं, सिलो?

सिल्लो ने आंसुओं को रोकने की चेष्टा करके कहा-तुमसे मिलने को बहुत जी चाहता था। इतने दिन हो गए, भेंट करने चली आई।

सोना का स्वर और कठोर हुआ-लेकिन आदमी किसी के घर जाता है, तो दिन को कि इतनी रात गए?

वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग रहा था वह समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा और हास-विलास का था, सिल्लो ने उसमें बाधक होकर जैसे उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी।

सिल्लो नि:संज्ञ-सी भूमि की ओर ताक रही थी। धरती क्यों नहीं पट जाती कि वह उसमें समा जाय। इतना अपमान। उसने अपने इतने ही जीवन में बहुत अपमान सहा था, बहुत दुर्दशा देखी थी, लेकिन आज यह फांस जिस तरह उसके अंतकरण में चुभ गई, वैसी कभी कोई बात न चुभी थी। गुड़ घर के अंदर मटकों में बंद रखा हो, तो कितना ही मूसलाधार पानी बरसे कोई हानि नहीं होती, पर जिस वक्त वह धूप में सूखने के लिए बाहर फैलाया गया हो, उस वक्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सर्वनाश कर देगा। सिलिया के अंतकरण की सारी कोमल भावनाएं इस वक्त मुंह खोले बैठी थीं कि आकाश से अमृत वर्षा होगी। बरसा क्या, अमृत के बदले विष, और सिलिया के रोम-रोम में दौड़ गया। सर्पदंश के समान लहरें आईं। घर में उपवास करे सो रहना और बात है, लेकिन पंगत से उठा दिया जाना तो डूब मरने की बात है। सिलिया को यहां एक क्षण ठहरना भी असह्य हो गया, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। वह कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या है, यह वह भांप रही थी। वह बांबी में बैठा हुआ सांप कहीं बाहर न निकल आए, इसके पहले ही वह वहां से भाग जाना चाहती थी। कैसे