मेहता ने पूछा-तुम हंसी क्यों?
'इसीलिए कि तुम तो ऐसे हिंसावादी नहीं जान पड़ते।'
'नहीं मालती, इस विषय में मैं पूरा पशु हूं और उस पर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और नि:स्वार्थ प्रेम, जिसमें आदमी अपने को मिटाकर केवल प्रेमिका के लिए जीता है, उसके आनंद से आनंदित होता है और उसके चरणों पर अपना आत्मसमर्पण कर देता है, ये मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएं पढ़ी हैं, जहां प्रेमी ने प्रेमिका के नए प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी है, मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूं, सेवा कह सकता हूं, प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंख्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आंख भी नहीं पड़ने देता'
मालती ने उनकी आंखों में आंखें डालकर कहा-अगर प्रेम खूंख्वार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूंगी। मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था। मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूं। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म-समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बनकर नहीं उपासक बनकर ही वरदान पा सकते हो।
वह उठकर खड़ी हो गई और तेजी से नदी की तरफ चली, मानो उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो। ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी अनुभव न हुआ। उसने स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दुर्बलता पाई थी, जो उसे सदैव आंदोलित करती रहती थी, सदैव अस्थिर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा करता था, जिसके बल पर टिक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे यह शक्ति न मिलती थी। बुद्धि और चरित्र की शक्ति देखकर वह उसकी ओर लालायित होकर जाती थी। पानी की भांति हर एक पात्र का रूप धारण कर लेती थी। उसका अपना कोई रूप न था।
उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी परीक्षार्थी छात्र की-सी थी। छात्र को पुस्तकों से प्रेम हो सकता है और हो जाता है, लेकिन वह पुस्तक के उन्हीं भागों पर ज्यादा ध्यान देता है, जो परीक्षा में आ सकते हैं। उसकी पहली गरज परीक्षा में सफल होना है। ज्ञानार्जन इसके बाद। अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा दयालु है या अन्धा है और छात्रों को यों ही पास कर दिया करता है, तो शायद वह पुस्तकों की ओर आंख उठाकर भी न देखे। मालती जो कुछ करती थी, मेहता को प्रसन्न करने के लिए। उसका मतलब था, मेहता का प्रेम और विश्वास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी बन जाना, लेकिन उसी छात्र की तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमाकर। लियाकत आ जाने से परीक्षक आप-ही-आप उससे संतुष्ट हो जाएगा, इतना धैर्य उसे न था। मगर आज मेहता ने जैसे उसे ठुकराकर उसकी आत्म-शक्ति को जगा दिया। मेहता को जब से उसने पहली बार देखा था, तभी से उसका मन उनकी ओर झुका था। उसे वह अपने परिचितों में सबसे समर्थ जान पड़े। उसके परिष्कृत जीवन में बुद्धि की प्रखरता और विचारों की दृढ़ता ही सबसे ऊंची वस्तु थी। धन और ऐश्वर्य को तो वह केवल खिलौना समझती थी, जिसे खेलकर लड़के तोड़-फोड़ डालते हैं। रूप में भी अब उसके लिए विशेष आकर्षण न था, यद्यपि कुरूपता के लिए घृणा थी। उसको तो अब बुद्धि-शक्ति ही अपनी ओर झुका सकती थी, जिसके आश्रय में उसमें आत्म-विश्वास जगे, अपने विकास की प्रेरणा मिले, अपने में शक्ति का संचार हो, अपने