सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोदान.pdf/२९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


होती थी, उस वक्त अगर उन्हें समझ होती, तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थे। कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हल्का कर सकते थे, मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में उड़ाया। यह कोई नया आविष्कार नहीं है कि संकटों में ही हमारी आत्मा को जागृति मिलती है। बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दु:खी नहीं होता? काश, वह समय ज्ञान या शक्ति के संचय में लगाया होता, सुकृतियों का कोष भर लिया होता, तो आज चित्त को कितनी शांति मिलती। वहीं उन्हें इसका वेदनामय अनुभव हुआ कि संसार में कोई अपना नहीं, कोई उनकी मौत पर आंसू बहाने वाला नहीं। उन्हें रह-रहकर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के गांव में जब वह कैंप में मलेरिया से ग्रस्त पड़े थे, एक ग्रामीण बाला ने उनकी तीमारदारी कितने आत्म-समर्पण से की थी। अच्छे हो जाने पर जब उन्होंने रुपये और आभूषणों से उसके एहसानों का बदला देना चाहा था, तो उसने किस तरह आंखों में आंसू भरकर सिर नीचा कर लिया था और उन उपहारों को लेने से इंकार कर दिया था। इन नसों की शुश्रुषा में नियम है, व्यवस्था है, सच्चाई है, मगर वह प्रेम कहां वह तन्मयता कहां जो उस बाला की अभ्यासहीन,अल्हड़ सेवाओं में थी? वह अनुरागमूर्ति कब की उनके दिल से मिट चुकी थी। वह उससे फिर आने का वादा करके कभी उसके पास न गए। विलास के उन्माद में कभी उसकी याद ही नही आई। आई भी तो उसमें केवल दया थी, प्रेम न था। मालूम नहीं उस बाला पर क्या गुजरी? मगर आजकल उसकी वह आतुर, नम्र, शांत, सरल मुद्रा बराबर उनकी आंखों के सामने फिरा करती थी। काश उससे विवाह कर लिया होता तो आज जीवन में कितना रस होता और उसके प्रति अन्याय के दु:ख ने उस संपूर्ण वर्ग को उनकी सेवा और सहानुभूति का पात्र बना दिया। जब तक नदी बाढ़ पर थी, उसके गंदी तेज फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखरकर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शांत हो गया था और रश्मियां उसकी तह तक पहुंच रही थीं।

मिर्जा साहब बसंत की इस शीतल संध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वारांगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि मिस्टर मेहता पहुंचे। मिर्जा ने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और बोले-मैं तो आपकी खातिरदारी का सामान लिए आपकी राह देख रहा हूं।

दोनों सुंदरियां मुस्कराईं। मेहता कट गए।

मिर्जा ने दोनों औरतों को वहां से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले-मैं तो खुद आपके पास आने वाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूं, वह आपकी मदद के बगैर पूरा न होगा आप सिर्फ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइए-हां मिर्जा, बढ़े चल पठ्ठे।

मेहता ने हंसकर कहा-आप जिस काम में हाथ लगाएंगे, उसमें हम जैसे किताबी कीड़ों की जरूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज्यादा हैं। दुनिया भी आपने खूब देखी है और छोटे छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में है, वह मुझमें होती, तो मैंने खुदा जाने क्या किया होता।

मिर्जा साहब ने थोड़े-से शब्दों में अपनी नई स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के में बाजार वही स्त्रियां आती हैं, जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलता, या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिए जाएं, तो बहुत कम औरतें इस भांति पतित हों।

मेहता ने अन्य विचारवान् सज्जनों की भांति इस प्रश्न पर काफी विचार किया था और