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300 : प्रेमचंद रचनावली-६
 


रहा, तब तो मालती उनकी सलाह लेने प्रायः एक-दो बार रोज आती थी, पर जब से दोनों इग्लैंड चले गए थे, उसका आना-जाना बंद हो गया था। घर पर भी वह मुश्किल से मिलती है। ऐसा मालूम होता था, जैसे वह उनसे बचती है, जैसे बलपूर्वक अपने मन को उनकी ओर से हटा लेना चाहती है। जिस पुस्तक में वह इन दिनों लगे हुए थे, वह आगे बढ़ने से इंकार कर रही थी, जैसे उनका मनोयोग लुप्त हो गया हो। गृह-प्रबंध में तो वह कभी बहुत कुशल न थे। सब मिलाकर एक हजार रुपये से अधिक महीने में कमा लेते थे, मगर बचत एक धेले की भी न होती थी। रोटी-दाल खाने के सिवा और उनके हाथ कुछ न था। तकल्लुफ अगर कुछ था तो वह उनकी कार थी, जिसे वह खुद ड्राइव करते थे। रुपये किताबों में उड़ जाते थे, कुछ चंदों में, गरीब छात्रों की परवरिश में और अपने बाग की सजावट में, जिससे उन्हें इश्क-सा था। तरह-तरह के पौधे और वनस्पतियां विदेशों से महंगे दामों मंगाना और उनको पालना-यही उनका मानसिक चटोरापन था, या इसे दिमागी ऐयाशी कहें, मगर इधर कई महीनों से उस बगीचे की ओर से भी वह कुछ विरक्त-से हो रहे थे और घर का इंतजाम और भी बदतर हो गया था। खाते दो फुलके और खर्च हो जाते सौ से ऊपर। अचकन पुरानी हो गई थी, मगर इसी पर उन्होंने कड़ाके का जाड़ा काट दिया। नई अचकन सिलवाने की तौफीक न हुई। कभी-कभी बिना घी की दाल खाकर उठना पड़ता। कब घी का कनस्तर मंगाया था, इसकी उन्हें याद ही न थी, और महाराज से पूछें भी तो कैसे? वह समझेगा नहीं कि उस पर अविश्वास किया जा रहा है? आखिर एक दिन जब तीन निराशाओं के बाद चौथी बार मालती से मुलाकात हुई और उसने इनकी यह हालत देखी, तो उससे न रहा गया। बोली-तुम क्या अबकी जाड़ा यों ही काट दोगे? यह अचकन पहनते तुम्हें शर्म नहीं आती?

मालती उनकी पत्नी न होकर भी उनके इतने समीप थी कि यह प्रश्न उसने उसी सहज भाव से किया, जैसे अपने किसी आत्मीय से करती।

मेहता ने बिना झेंपे हुए कहा-क्या करूं मालती, पैसा तो बचता ही नहीं।

मालती को अचरज हुआ-तुम एक हजार से ज्यादा कमाते हो, और तुम्हारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे नहीं? मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज्यादा न थी, लेकिन मैं उसी में सारी गृहस्थी चलाती हूं और बचा लेती हूं। आखिर तुम क्या करते हो?

'मैं एक पैसा भी फालतू नहीं खर्च करता। मुझे कोई ऐसा शौक भी नहीं है।'

'अच्छा, मुझसे रुपये ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो।'

मेहता ने लज्जित होकर कहा-अबकी बनवा लूंगा। सच कहता हूं।

'अब आप यहां आएं तो आदमी बनकर आएं।'

'यह तो बड़ी कड़ी शर्त है।'

'कड़ी सही। तुम जैसों के साथ बिना कड़ाई किए काम नहीं चलता।'

मगर वहां तो संदूक खाली था और किसी दुकान पर बे-पैसे जाने का साहस न पड़ता था। मालती के घर जायं तो कौन मुंह लेकर? दिल में तड़प-तड़पकर रह जाते थे। एक दिन नई विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपये माहवार बढ़ते जाते थे। मकानदार ने, जब बहुत तकाजे करने पर भी रुपये वसूल न कर पाए, तो नोटिस दे दी, मगर नोटिस रुपये गढ़ने का कोई जंतर तो है नहीं। नोटिस की तारीख निकल गई और रुपये न पहुंचे। तब मकानदार ने मजबूर होकर नालिश कर दी। वह जानता था, मेहताजी बड़े