सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं लेकिन इससे ज्यादा भलमनसी वह क्या करता कि छः महीने सब्र किए बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न की, एक तरफा डिगरी हो गई, मकानदार ने तुरंत डिग्री जारी कराई और कुर्क-अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आया, क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और उसे मेहता कुछ वजीफा भी देते थे। संयोग से उस वक्त मालती भी बैठी थी?
बोली-कैसी कुर्की है? किस बात की?
अमीन ने कहा-वही किराए की डिगरी जो हुई थी, मैंने कहा, हुजूर को इत्तला दे दें। चार-पांच सौ का मामला है, कौन-सी बड़ी रकम है? दस दिन में भी रुपये दे दीजिए, तो कोई हरज नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूंगा।
जब अमीन चला गया तो मालती ने तिरस्कार-भरे स्वर में पूछा-अब नौबत यहां तक पहुंच गई। मुझे आश्चर्य होता है कि तुम इतने मोटे-मोटे ग्रंथ कैसे लिखते हो? मकान का किराया छः-छः महीने से बाकी पड़ा है और तुम्हें खबर नहीं?
मेहता लज्जा से सिर झुकाकर बोले-खबर क्यों नहीं है, लेकिन रुपये बचते ही नहीं।
मैं एक पैसा भी व्यर्थ नहीं खर्च करता।
'कोई हिसाब-किताब भी लिखते हो?'
'हिसाब क्यों नहीं रखता। जो कुछ पाता हूं, वह सब दर्ज करता जाता हूं, नहीं इनकमटैक्स वाले जिंदा न छोड़ें।'
'और जो कुछ खर्च करते हो, वह?'
'उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता।'
'क्यों?'
'कौन लिखे? बोझ-सा लगता है।'
'और यह पोथे कैसे लिख डालते हो?'
'उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। कलम लेकर बैठ जाता हूं। हर वक्त खर्च का खाता तो खोलकर नहीं बैठता।'
'तो रुपये कैसे अदा करोगे?'
'किसी से कर्ज ले लूंगा। तुम्हारे पास हो तो दे दो।'
'मैं तो एक शर्त पर दे सकती हूं। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आए और खर्च भी मेरे हाथों से हो।'
मेहता प्रसन्न होकर बोले-वाह, अगर यह भार ले लो, तो क्या कहना, मूसलों ढोल बजाऊं।
मालती ने डिगरी के रुपये चुका दिए और दूसरे ही दिन मेहता को वह बंगला खाली करने पर मजबूर किया। अपने बंगले में उसने उनके लिए दो बड़े-बड़े कमरे दे दिए। उनके भोजन आदि का प्रबंध भी अपनी ही गृहस्थी में कर दिया। मेहता के पास सामान तो ज्यादा न था, मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गए। अपना बगीचा छोड़ने का उन्हें जरूर कलक हुआ, लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल पत्तियां चाहें लगाएं।
मेहता तो निश्चिंत हो गए, लेकिन मालती को उनकी आय-व्यय पर नियंत्रण करने में