बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखा, आय तो एक हजार से ज्यादा है, मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस-पच्चीस लड़के उन्हीं के वजीफा पाकर विद्यालय में पढ़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस खर्च में कैसे कमी करे, यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़ा जाएगा, सारा अपयश उसी के हिस्से पड़ेगा। कभी मेहता पर झुंझलाती, कभी अपने ऊपर, कभी साथियों के ऊपर जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते जरा भी न सकुचाते थे। यह देखकर और झुंझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया।
मेहता ने उसका आक्षेप सुनकर निश्चिंत भाव से कहा-तुम्हें अख्तियार है, जिसे चाहे दो, चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। हां, जवाब भी तुम्हीं को देना पड़ेगा।
मालती ने चिढ़कर कहा-हां, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे सिर मढ़ो। मैं नही समझती, तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य-जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा, बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है।
मेहता ने स्वीकार किया—मेरा भी यही खयाल है।
'तुम्हारा यह खयाल नहीं है।'
'नहीं मालती, मैं सच कहता हूं।'
'तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्यों?'
मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ जवाब दिया, किसी से मजबूरी जताई, किसी की फजीहत की।
मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे-धीरे ठीक हो गया, मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ बचत दिखाई, तब वह उससे कुछ बोले नहीं, मगर उनकी दृष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक्-बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे।
जिस दिन मेहता की अचकनें बनकर आईं और नई घड़ी आई, वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म-सेवा से बड़ा उनकी नजर में दूसरा अपराध न था।
मगर रहस्य की बात यह थी कि मालती उनको तो लेखे-ड्योढे में कसकर बांधना चाहती थी। उनके धन-दान के द्वार बंद कर देना चाहती थी, पर खुद जीवन-दान देने में अपने समय और सदाश्यता को दोनों हाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर तो वह बिना फीस लिए न जाती थी, लेकिन गरीबों को मुफ्त देखती थी, मुफ्त दवा भी देती थी। दोनों में अंतर इतना ही था, कि मालती घर की भी थी और बाहर की भी, मेहता केवल बाहर के थे, घर उनके लिए न था। निजत्व दोनों मिटाना चाहते थे। मेहता का रास्ता साफ था। उन पर अपनी जात के सिवा और कोई जिम्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कठिन था, उस पर दायित्व था, बंधन था, जिसे वह तोड़ न सकती थी, न तोड़ना चाहती थी। उस बंघन में ही उसे जीवन की प्रेरणा मिलती थी। उसे अब मेहता को समीप से देखकर यह अनुभव हो रहा था कि वह खुले जंगल में विचरने