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306 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


आराम करता? वह खुद सूखता जाता था, पर बाग हरा हो रहा था।

मिस्टर मेहता को भी बालक से स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद में लेकर उनकी मूछें उखड़वा दी थीं। दुष्ट ने मूंछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आंखों में आंसू भर आए थे।

मेहता ने बिगड़कर कहा था-बड़ा शैतान लौंडा है।

मालती ने उन्हें डांटा था-तुम मूंछें साफ क्यों नहीं कर लेते?

'मेरी मूंछें मुझे प्राणों से प्रिय हैं।'

'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़कर ही छोड़ेगा।'

'तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूंगा।'

मंगल को उनकी मूंछें उखाड़ने में कोई खास मजा आया था। वह खूब खिल-खिलाकर हंस रहा था और मूंछों को और जोर से खींचा था, मगर मेहता को भी शायद मूंछें उखड़वाने में मजा आया था, क्योंकि वह प्रायः दो-तीन बार रोज उससे अपनी मूंछों की रस्साकशी करा लिया करते थे।

इधर जब से मंगल को चेचक निकल आई थी, मेहता को भी बड़ी चिंता हो गई थी। अक्सर कमरे में जाकर मंगल को व्यथित आंखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाता, तो पृथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते, रुपये खर्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही मांगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते, लेकिन यहां कोई बस न था। उसे छूते भी उनके हाथ कांपते थे। कहीं उसके आंबले न टूट जायं। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कंधे पर उठाकर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहलाकर दूध पिलाती है। यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊंचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता भी है और ऐसी वैसी माता भी नहीं, सच्चे अर्थों में देवी और माता और जीवन देने वाली, जो पराए बालक को भी अपना सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो। यह हाव-भाव, यह शौक-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिससे उस विभूति की रक्षा होती रहे।

रात का एक बज गया था। मंगल का रोना सुनकर मेहता चौंक पड़ा। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा, अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूं। तुरंत उठकर उस कमरे के द्वार पर आए और शीशे से अंदर झांका। मालती बच्चे को गोद में लिए बैठी थी और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकाती थी, तस्वीरें दिखाती थी, गोद में लेकर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देखकर उनकी आंखें सजल हो गईं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अंदर जाकर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अंतस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा-प्रिये, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डार्लिंग....

और उसी प्रेमोन्माद में उन्होंने पुकारा-मालती, जरा द्वार खोल दो।

मालती ने आकर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आंखों से देखा।