मेहता ने पूछा-क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।
मेहता ने संवेदना-भरे स्वर में कहा-आज आठवां दिन है, पीड़ा अधिक होगी। इसी से।
'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूँ, तुम थक गई होगी।'
मालती ने मुस्कराकर कहा-तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा।
बात सच थी, मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है? मेहता ने जिद करके कहा-तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया है?
मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अंतर्ज्ञान होता है, उसने उसे बता दिया अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहीं, पुरुष है और पुरुष गुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है। और चारपाई पर लेटाकर, या बाहर अंधेरे में सुलाकर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।
मेहता ने विजय-गर्व से कहा-देखा, कैसा चुप कर दिया।
मालती ने विनोद किया-हां, तुम इस कला में भी कुशल हो। कहां सीखी?
'तुमसे।'
'मैं स्त्री हूं और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'
मेहता ने लज्जित होकर कहा-मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूं, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में कितना पछताया हूं, जितना लज्जित हुआ हूं, कितना दु:खी हुआ हूं, शायद तुम इसका अंदाज न कर सको।
मालती ने सरल भाव से कहा-मैं तो भूल गई, सच कहती हूं।
'मुझे कैसे विश्वास आए?'
'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हंसते हैं, बोलते हैं।'
'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी?'
उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहां वह दुबककर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आंखों से देखा, जैसे उसकी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो।
मालती ने आर्द्र होकर कहा-तुम जानते हो, तुमसे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नहीं है। मैंने बहुत दिन हुए अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्शक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरु हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की जरूरत है। जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-सेवा ही मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहसान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की तट वाली तुम्हारी बातें गांठ बांध लीं। दुःख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा, जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्व मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूं, लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं वही बनी रहूंगी, ऐसा समझकर तुमने मेरे साथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूं, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पाकर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है।