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गोदान : 309
 


बोली-अच्छा, कहो क्या कहते हो?

मेहता ने विमन होकर कहा-कोई खास बात नहीं है। यही कह रहा था कि इतनी रात गए किस मरीज को देखने जाओगी?

'वही रायसाहब की लड़की है। उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी। अब कुछ सभंल गई है।'

उसके जाते ही मेहता फिर लेटे रहे। कुछ समझ में नहीं आया कि मालती के हाथ रखते ही दर्द क्यों शांत हो गया। अवश्य ही उसमें कोई सिद्धि है और यह उसकी तपस्या का, उसकी कर्मण्य मानवता का ही वरदान है। मालती नारीत्व के उस ऊंचे आदर्श पर पहुंच गई थी, जहां वह प्रकाश के एक नक्षत्र-सी नजर आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। अब वह दुर्लभ हो गई थी और दुर्लभता मनस्वी आत्माओं के लिए उद्योग का मंत्र है। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थे, उसे श्रद्धा ने और भी गहरा, और भी स्फूर्तिमय बना दिया। प्रेम में कुछ मान भी होता है कुछ ममत्व भी। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार करना चाहता हैं, जो कुछ देता है, उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनंद अपना समर्पण है जिसमें अहम्मन्यता का ध्वंस हो जाता है।

मेहता का वह वृहत् ग्रंथ समाप्त हो गया था, वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन-तत्वों का समन्वय किया था। यह ग्रंथ उन्होंने मालती को समर्पित किया और जिस दिन उसकी प्रतियां इंग्लैंड से आईं और उन्होने एक प्रति मालती को भेंट की, वह उसे अपने नाम से समर्पित देखकर विस्मित भी हुई और दु:खी भी।

उसने कहा-यह तुमने क्या किया? मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।

मेहता ने गर्व के साथ कहा-लेकिन मैं तो समझता हूं। यह तो कोई चीज नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होते तो वह तुम्हारे चरणों में न्योछावर कर देता।

'मुझ पर! जिसने स्वार्थ-सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं।'

'तुम्हारे त्याग का टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो।'

'पत्थर की, इतना और क्यों नहीं कहते?'

'त्याग की, मंगल की, पवित्रता की।'

'तब तुमने मुझे खूब समझा! मैं और त्याग! मैं तुमसे सच कहती हूं, सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूं। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूं, या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सांत्वना देती हूं, बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा-दारू भी गरीबों को दे देती हूं, केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख्वाहमख्वाह देवी बनाए डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गई है कि धूपदीप लेकर मेरी पूजा करो।'

मेहता ने कातर स्वर में कहा-वह तो मैं बरसो से कर रहा हूं मालती, और उस वक्त तक करता जाऊंगा, जब तक वरदान न मिलेगा।

मालती ने चुटकी ली-तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मंदिर से निकाल फेंको।

मेहता संभलकर बोले-तब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगी, उपासक उपास्य में लय