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310 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


हो जायगा।

मालती ने गंभीर होकर कहा-नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूं और अंत में मैंने यह तय किया है कि मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझ पर विश्वास करते हो, और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदर्शक ही नहीं, अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूं, तुम पर विश्वास करती हूं, और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं है, जो मैं न कर सकूं। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन-पर्यंत मुझे इसी मार्ग पर दृढ़ रखें। हमारी पूर्णता के लिए, हमारी आत्मा के विकास के लिए और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बनाकर, हमारी आत्माओं को छोटे-से पिजड़े में बंद करके, अपने दुःख-सुख को अपने ही तक रखकर, क्या हम असीम के निकट पहुंच सकते हैं? वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। विरले प्राणी ऐसे भी हैं, जो पैरों में यह बेड़ियां डालकर भी विकास के पथ पर चल सकते हैं और चल रहे हैं। यह भी जानती हूं कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्व है, लेकिन मैं अपनी आत्मा को उतना दृढ़ नहीं पाती। जब तक ममत्व नहीं है, अपनापन नहीं है, तब तक जीवन का मोह नहीं है, स्वार्थ का जोर नहीं है। जिस दिन मन में मोह आसक्त हुआ और हम बंधन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायगा, नई-नई जिम्मेदारियां आ जायंगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेंगी। तुम्हारे जैसे विचारवान्, प्रतिभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बंद नहीं करना चाहती। अभी तक तुम्हारा जीवन यज्ञ था, जिसमें स्वार्थ के लिए बहुत थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊंगी। संसार को तुम जैसे साधकों की जरूरत है, जो अपनेपन को इतना फैला दें कि सारा संसार अपना हो जाय। संसार में अन्याय की, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है। अंधविश्वास का, कपट का, धर्म का, स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। तुमने वह आर्त पुकार सुनी है। तुम भी न सुनोगे तो सुनने वाले कहां से आयंगे? और असत्य प्राणियों की तरह तुम भी उसकी ओर से अपने कान नहीं बंद कर सकते। तुम्हें वह जीवन भार हो जायगा। अपनी विद्या और बुद्धि को, अपनी जागी हुई मानवता को और भी उत्साह और जोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंगी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी सार्थक कर दो। मेरा तुमसे यही आग्रह है। अगर तुम्हारा मन सांसारिकता की ओर लपकता है, तब भी मैं अपना काबू चलते तुम्हें इधर से हटाऊंगी और ईश्वर न करें कि मैं असफल हो जाऊं, लेकिन तब मैं तुम्हारा साथ दो बूंद आंसू गिराकर छोड़ दूंगी, और कह नहीं सकती मेरा क्या अंत होगा, किस घाट लगूंगी, पर चाहे वह कोई घाट हो, इस बंधन का घाट न होगा। बोलो, मुझे क्या आदेश देते हो?

मेहता सिर झुकाए सुनते रहे। एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आंखें इस तरह खोले देता था, जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनाएं जो अब तक उनके सामने स्वप्न-चित्रों की तरह आईं थीं, अब जीवन सत्य बनकर स्पंदित हो गई थीं। वह अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आंखों में फिर जाता है। मेहता की आंखों में मधुर बाल-स्मृतियां सजीव हो उठीं, जब वह अपनी विधवा माता की गोद में बैठकर महान् सुख का अनुभव किया करते थे। कहां है वह माता, आए और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह जिद्दी बालक आज