भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। आंचल दूध से भीग गया और मुख आंसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनंद लेने लगी।
सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला-कब तक रोए जायगी सिलिया? रोने से वह फिर तो न आ जायगा।
और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।
सिलिया के कंठ में आए हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गए। आवाज संभालकर बोली-तुम आज इधर कैसे आ गए?
मातादीन कातर होकर बोला-इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।
'तुम तो उसे खेला भी न पाए।'
'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'
'सच?'
'सच।'
'मैं कहां थी?'
'तू बाजार गई थी?'
'तुम्हारी गोद में रोया नहीं?'
'नहीं सिलिया, हंसता था।'
'सच?'
'सच।'
'बस, एक ही दिन खेलाया?'
'हां, एक ही दिन, मगर देखने रोज आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'
'तुम्हीं को पड़ा था।'
'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'
सिलिया की आंखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला।
सिलिया ने कहा-मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूं। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।
'धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'
'सच?'
'हां सच। जब मिलती थी, समझाने लगती थी।'
गांव के समीप आकर सिलिया ने कहा-अच्छा, अब इधर से अपने घर जाओ। कहीं पंडित देख न लें।
मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा-मैं अब किसी से नहीं डरता।
'घर से निकाल देंगे तो कहां जाओगे?'
'मैंने अपना घर बना लिया है।'
'सच?'