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316 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

'मेरी रानी, सिलिया।'

'तो बांभन कैसे रहोगे?'

'मैं बांभन नहीं, चमार ही रहना चाहता हूं। जो अपना धरम पाले, वही बांभन है, जो धर्म से मुंह मोड़े, वही चमार है।'

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।

पैंतीस


होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जाती थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई, पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी, मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुंच गया था, जब उसमें आत्मविश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आंसू पुंछते, मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो, पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भांति दूर ही होते चले गए। यहां तक कि अब उसे, धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।

हारे हुए महीप की भांति उसने अपने को इस तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था। और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की, पर किले को हाथ से न जाने दिया, मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपये मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जाएगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान् की इच्छा। रायसाहब को क्या दोष दें? असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गांव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है, आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?

सांझ हो गई थी। वह इसी चिंता में डूबा बैठा था कि पंडित दातादीन ने आकर कहा-क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोलचाल बंद है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख को पंद्रह दिन और रह गए हैं।

होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा-वह मालिक हैं, जो चाहे करें, मेरे पास रुपये होते तो यह दुर्दसा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं, लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

'लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा? बाप-दादों की इतनी ही निशानी बच रही है। वह निकल गई, तो कहां रहोगे?'

'भगवान् की मरजी है, मेरा क्या बस?'

'एक उपाय है, जो तुम करो।'

होरी को जैसे अभय-दान मिल गया। उनके पांव पकड़कर बोला-बड़ा धरम होगा महराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है? मैं तो निरास हो गया था।