जीवन के सारे अनुभव और कला की सारी प्रौढ़ता भर दी थी उनका कुछ विशेष आदर न हुआ था। इसके पहले उनकी दो रचनाएं निकली थीं। उन्होंने साहित्य-संसार में हलचल मचा दी थी। हर एक पत्र में उन पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाएं हुई थीं, साहित्य-संस्थानों ने उन्हें बधाइयां दी थीं, साहित्य-मर्मज्ञों ने गुण ग्राहकता से भरे पत्र लिखे थे। यद्यपि उन रचनाओं का देवकुमार की नजर में अब उतना आदर न था, उनके भाव उन्हें भावुकता के दोष पूर्ण लगते थे, शैली में भी कृत्रिमता और भारीपन था पर जनता की दृष्टि में बही रचनाएं अब भी सर्वप्रिय थीं। इन नयी कृतियों से बिन बुलाये मेहमान का-सा आदर किया गया, मानों साहित्य-संसार संगठित होकर उनका अनादर कर रहा हो। कुछ तो यों भी उनकी इच्छा विश्राम करने की हो रही थी, इस शीतलता ने उस विचार को और भी दृढ़ कर दिया। उनके दो चार सच्चे साहित्यिक मित्रों ने इस तर्क से उनको ढारस देने की चेष्टा की कि बड़ी भूल में मामूली भोजन भी जितना प्रिय लगता है, भूख कम हो जाने पर उससे कहीं रूचिकर पर भी उतने प्रिय नहीं लगते पर इससे उन्हें आश्वासन न हुआ उनके विचार में किसी साहित्यकार की सजीवता का यही प्रमाण था कि उसकी रचनाओं की भूख जनता में बराबर बनी रहे। जब वह भूखे न रहे तो उसको क्षेत्र से प्रस्थान कर जाना चाहिए। उन्हें केवल पंकजा के विवाह की चिंता थी और जब उन्हें एक प्रकाशक ने उनकी पिछली दोनों कृतियों के पांच हजार दे दिए तो उन्होंने इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझा और लेखनी उठा कर सदैव के लिए एक मगर इन छह महीनों में उन्हें बार-बार अनुभव हुआ कि उन्होंने वानप्रस्थ लेकर भी अपने को बंधनों से न छुड़ा पाया। शैव्या के दुराग्रह की तो उन्हें कुछ ऐसी परवाह न थी। यह उन देवियों में थी जिनका मन संसार से कभी नहीं छूटता। उसे अब भी अपने परिवार पर शासन करने की लालसा बनी हुई थी, और जब तक हाथ में पैसे भी न हों, वह लालसा पूरी नहीं हो सकती थी। जब देवकुमार अपने चालीस वर्ष के विवाहित जीवन में उसकी मृगतृष्णा न मिट सके तो अब उसका प्रयत्न करना वह पानी पीटने से कम व्यर्थ न समझते थे। दु:ख उन्हें होता था। सन्तकुमार के विचार और व्यवहार पर जो उनको घर को संपत्ति लुटा देने के लिए इस दशा में भी क्षमा न करना चाहता था। वह संपति जो पचास साल पूर्व दस हजार में फेंक दी गई आज होती तो उससे दस हजार साल की निकासी हो सकती थी। उनकी जिस अगाम दिन को सियार लोटते थे वहां अब नगर का सबसे गुलजार बाजार था जिसकी प्रेम सौ रुपये वर्ग फुट पर बिक रही थी। सन्तकुमार का महत्वाकांक्षी मन रह-रहकर अपने पिता पर कुढ़ता रहता था। पिता और पुत्र के स्वभाव में इतना अंतर कैसे हो गया यह रहस्य था। देवकुमार के पास जरूरत से हमेशा कम रहा पर उनके हाथ सदैव खुले रहे। उनका सौंदर्य भावना से जागा हुआ मन कभी कंचन की उपासना को जीवन का लक्ष्य न बना सका। यह नहीं कि वह धन का मूल्य जानते न हों। मगर उनके मन में यह धारणा जम गई थी कि इस राष्ट्र में तीन-चौथाई प्राणी भूखों मरते हों वहां किसी एक को बहुत सा धन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं हैं, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो। मगर सन्तकुमार की लिप्सा ऐसे नैतिक आदर्शों पर हंसती थी। कभी -कभी तो निसंकोच होकर वह यहां तक कह जाता था कि जब 'आपको साहित्य से प्रेम था तो आपको गृहस्थ बनने का क्या हक था? आपने धन जीवन तो चौपट किया ही, हमारा जीवन भी मिट्टी मिला दिया और अब आप वानप्रस्थ लेकर बैठे हैं, मानो आपके जीवन के सारे ऋण चुक गए।'
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332: प्रेमचंद रचनावली-6