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मंगलसूत्र: 333
 


जाड़ों के दिन थे। आठ बज गए थे। सारा घर नाश्ते के लिए जमा हो गया था। पंकजा तख्त पर चाय और संतरे और सूखे मेवे तश्तरियों में रख दोनों भाइयों को उनके कमरों से बुलाने गई और एक क्षण में आकर साधुकुमार बैठ गया। ऊंचे कद का, सुगठित, रूपवान्, गोरा, मीठे वचन बोलने वाला, सौम्य युवक था जिसे केवल खाने और सैर-सपाटे से मतलब था। जो कुछ जुड़ जाय भरपेट खा लेता था और यार-दोस्तों में निकल जाता था।

शैव्या ने पूछा-संतू कहां रह गया? चाय ठंडी हो जायगी तो कहेगा यह तो पानी है। बुला ले तो साधु, इसे जैसे खाने-पीने की भी छुट्टी नहीं मिलती।

साधु सिर झुका कर रह गया। सन्तकुमार से बोलते उनकी जान निकलती थी।

शैव्या ने एक क्षण बाद फिर कहा उसे भी क्यों नहीं बुला लेता?

साधु ने दबी जबान से कहा-नहीं, बिगड़ जायेंगे सवेरे-सवेरे तो मेरा सारा दिन खराब हो जायेगा।

इतने में सन्तकुमार भी आ गया। शक्ल-सूरत में छोटे भाई से मिलता-जुलता, कंवल शरीर का गठन उतना अच्छा न था। हां, मुख पर तेज और गर्व की झलक थी, और मुख पर एक शिकायत-सी बैठी हुई थी, जैसे कोई चीज उसे पसंद न आती हो।

तख्त पर बैठकर चाय मुंह से लगाई और नाक सिकोड़ कर बोले-तू क्यों नहीं आती पंकजा? और पुष्पा कहां है? मैं कितनी बार कह चुका कि नाश्ता, खाना-पीना सबका एक साथ होना चाहिए।

शैव्या ने आंखें तरेकर कहा तुम लोग खा लो, यह सब पीछे खा लेंगी। कोई पंगत थोड़ी है कि सब एक साथ बैठें।

सन्तकुमार ने एक घूंट चाय पीकर कहा वही पुराना ढाचरा कितनी बार कह चुका कि उस पुराने लचर संकोच का जमाना नहीं रहा।

शैव्या ने मुंह बनाकर कहा-सब एक साथ तो बैठें लेकिन पकाये कौन और परसे कौन? एक महाराज रक्खो पकाने के लिए, दूसरा परसने के लिए, तब वह ठाट निभेगा।

-तो महात्माजी उसका इंतजाम क्यों नहीं करते या वानप्रस्थ होना ही जानते हैं।

-उनको जो कुछ करना था कर चुके। अब तुम्हें जो कुछ करना हो तुम करो।

-जब पुरुषार्थ नहीं था तो हम लोगों को पढ़ाया-लिखाया क्यो? किसी देहात में ले जाकर छोड़ देते। हम अपनी खेती करते या मजूरी करते और पड़े रहते। यह खटराग ही क्यों पाला?

-तुम उस वक्त न थे, सलाह किससे पूछते?

सन्तकुमार ने कड़वा मुंह बनाये चाय पी, कुछ मेवे खाए फिर साधुकुमार से बोले-तुम्हारी टीम कब बम्बई जा रही है जी?

साधुकुमार ने गरदन झुकाए त्रस्त स्वर में कहा-परसों।

-तुमने नया सूट बनवाया?

-मेरा पुराना सूट अभी अच्छी तरह काम दे सकता है।

-काम तो सूट के न रहने पर भी चल सकता है। हम लोग तो नंगे पांव, धोती चढ़ाकर खेला करते थे। मगर जब एक आल इण्डिया टीम में खेलने जा रहे हो तो वैसा ठाट भी तो होना चाहिए। फटेहालों जाने से तो कहीं अच्छा है, न जाना। जब वहां लोग जानेंगे कि तुम महात्मा