पृष्ठ:गोदान.pdf/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मंगलसूत्र: 335
 


-चलोगी न?

-तुम कहते हो तो क्यों न चलूंगी?

-तुम्हारी क्या इच्छा है?

-मेरी कोई इच्छा नहीं है।

-आखिर किस बात पर नाराज हो?

-किसी बात पर नहीं।

-खैर, न बोलो, लेकिन यह समस्या यों चुप्पी साधने से हल में होगी।

पुष्पा के इस निरीह अस्त्र ने सन्तकुमार को बौखला डाला था। वह खूब झगड़ कर उस विवाद को शांत कर देना चाहता था। क्षमा मांगने पर तैयार था, वैसी बात अब फिर मुंह से न निकालेगा, लेकिन उसने जो कुछ कहा था वह उसे चिढ़ाने के लिए नहीं, एक यथार्थ बात को पुष्ट करने के लिए ही कहा था। उसने कहा था जो स्त्री पुरुष पर अवलंबित है, उसे पुरुष की हुकूमत माननी पड़ेगी। वह मानता था कि उस अवसर पर यह बात उसे मुंह से न निकालनी चाहिए थी। अगर कहना आवश्यक भी होता तो मुलायम शब्दों में कहना था, लेकिन जब एक औरत अपने अधिकारों के लिए पुरुष से लड़ती है, उसकी बराबरी का दावा करती है तो उसे कठोर बातें सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस वक्त भी वह इसीलिए आया था कि पुष्या को कायल करे और समझाए कि मुंह फेर लेने से ही किसी बात का निर्णय नही हो सकता। वह इस मैदान को शांत कर यहां एक झंडा गाड़ देना चाहता था जिसमें इस विषय पर कभी विवाद न हो सके। तब से कितनी ही नई नई युक्तियां उसके मन में आ गई थीं, मगर जब शत्रु किले के बाहर निकले ही नहीं तो उस पर हमला कैसे किया जाय।

एक उपाय है। शत्रु को बहला कर, उस पर अपने संधि-प्रेम का विश्वास जमाकर, किले से निकालना होगा।

उसने पुष्पा की ठुड्डी पकड़कर अपनी ओर फेरते हुए कहा-अगर यह बात तुम्हें इतनी लग रही है तो में उसे वापस लिए लेता हूं। उसने लिए तुमसे क्षमा मांगता हूं। तुमको ईश्वर ने वह शक्ति दी है कि तुम मुझ से दस-पांच दिन बिना बोले रह सकती हो, लेकिन मुझे तो उसने वह शक्ति नहीं दी। तुम रूठ जाती हो तो जैसे मेरी नाड़ियों में रक्त का प्रवाह बंद हो जाता है। अगर वह शक्ति तुम मुझे भी प्रदान कर सको तो मेरी और तुम्हारी बराबर लड़ाई होगी और मैं तुम्हें छेड़ने न आऊंगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं कर सकतीं तो इस अस्त्र का मुझ पर वार न करो।

पुष्पा मुस्करा पड़ी। उसने अपने अस्त्र से पति को परास्त कर दिया था। जब वह दीन बनकर उससे क्षमा मांग रहा है तो उसका हृदय क्यों न पिघल जाय।

संधि-पत्र पर हस्ताक्षर स्वरूप पान का एक बीड़ा लगाकर सन्तकुमार को देती हुई बोली-अब से कभी वह बात मुंह से न निकालना। अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूं तो तुम भी मेरे आश्रित हो। में तुम्हारे घर में जितना काम करती हूं, इतना ही काम दूसरों के घर में करुं तो अपना निवाह कर सकती हूं या नहीं, बोलो?

सन्तकुमार ने कड़ा जवाब देने की इच्छा को रोककर कहा-बहुत अच्छी तरह।

-तब मैं जो कुछ कमाऊंगी वह मेरा होगा। यहां मैं चाहे प्राण भी दे दूं पर मेरा किसी चाज पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो।