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मंगलसूत्र : 339
 


हकीकत न थी। चीनी का प्लेट टूट जाने पर एक पुष्पा के हाथ से उन्होंने उसके कान ऐंठ लिए थे। फर्श पर स्याही गिरा देने की सजा उन्होंने पंकजा से सारा फर्श धुलवाकर दी थी। पुष्पा उनके रखे रुपयों को कभी हाथ तक न लगाती थी। यह टीक है कि वह धन को महज जमा करने की चीज न समझते थे। धन भोग करने की वस्तु है, उनका यह सिद्धांत था। फजूलखर्चा या लापरवाही बर्दाश्त न करते थे। उन्हें अपने सिवा किसी पर विश्वास न था। पुष्पा ने कठोर आत्मसमर्पण के साथ इस जीवन के लिए अपने को तैयार कर लिया था। पर बार-बार यह याद दिलाया जाना कि यहां उसका कोई अधिकार नहीं है, यहां वह केवल एक लौंडी की तरह है उसे असह्य था। अभी उस दिन इसी तरह की एक बात सुनकर उसने कई दिन खाना-पीना छोड़ दिया था। और आज तक उसने किसी तरह मन को समझाकर शांत किया था कि यह दूसरा आघात हुआ। इसने उसके रहे-सहे धंधे का भी गला घोंट दिया। सन्तकुमार तो उसे यह चुनौती देकर चले गए। वह वहीं बैठी सोचने लगी अब उसको क्या करना चाहिए। इस दशा में तो वह अब नहीं रह सकती। वह जानती थी कि पिता के घर में भी उसके लिए शांति नहीं है। डाक्टर साहब भी सन्तकुमार का आदश युवक समझते थे और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना कठिन था कि सन्तकुमार की ओर से कोई बेजा हरकत हुई है। पुष्पा का विवाह करके उन्होंने जीवन की एक समस्या हल कर ली थी। उस पर फिर विचार करना उनके लिए असूझ था उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि अब कहीं निश्चिंत होकर दुनिया की सैर करें। यह समय अब निकट आता जाता था। ज्योंही लड़का इंगलैंड से लोटा और छोटी लड़की की शादी हुई कि वह दुनिया के धन से मुक्त हो जायंगे। पुष्पा फिर उनके सिर पड़कर उनके जीवन के सबसे बड़े अरमान में बाधा न डालना चाहती थी। फिर उसके लिए दसरा कौन स्थान है? कोई नहीं। तो क्या इस घर में रहकर जीवन-पर्यत अपमान सहते रहना पड़ेगा?

साधुकुमार आकर बैठ गया। पष्पा ने चौंककर पूछा-तुम बम्बई कब जा रहे हो?

साधु ने हिचकिचाते हुए कहा-जाना तो था कल लेकिन मरी जाने की इच्छा नहीं होती। आने जाने में सैंकड़ों का खर्च है। घर में रुपये नहीं हैं, मैं किसी को सताना नहीं चाहता। बम्बई जाने की ऐसी जरूरत ही क्या है। जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों, वहां दस-बीस आदमिया का क्रिकिट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है। मैं तो नहीं जाना चाहता।

पुष्पा ने उत्तेजित किया-तुम्हारे भाई साहब तो रुपये दे रहे हैं?

साधु ने मुस्कराकर कहा भाई साहब रुपये नहीं दे रहे हैं, मुझे दादा का गला दबाने को कह रहे हैं। मैं दादा को कष्ट नहीं देना चाहता। भाई साहब से कहना मत भाभी, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं।

पुष्पा उसकी इस नम्र सरलता पर हंस पड़ी। बाईस साल का गर्वीला युवक जिसने सत्याग्रह-संग्राम में पढ़ना छोड़ दिया, दो बार जेल हो आया, जेलर के कटु वचन सुनकर उसकी छाती पर सवार हो गया और इस उद्दंडता की सजा में तीन महीने काल-कोठरी में रहा, वह अपने भाई से इतना डरता है, मानो वह हौवा हों। बोलो मैं तो कह दूंगी।

--तुम नहीं कह सकतीं। इतनी निर्दय नहीं हो।

पुष्पा प्रसन्न होकर बोली कैसे जानते हो?