पृष्ठ:गोदान.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
344: प्रेमचंद रचनावली-6
 


देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था और वह अच्छे-से पहनावे सेउसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन कितनी ही बार वह नयेनये रूप धरती थी। कभी तालियों का भेष धारण कर लेती थी कभी गुजरियोंकाकभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी। मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महत्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकरनराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतन से कुछ रहस्यकुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रताजो बिहलत देखी थी उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतता थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उन मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी।सन्तकुमारका संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपन को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनम कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग- रूप की उन्होंने इननी प्रशंसा की थी जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई. मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने कवन पुष्पा के फूहड़पनबेबकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और निब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्या को देख पाती तो सन्तकु मार का पक्ष लंकर उसस एक दिन उसने सन्तकुमार से कह-तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते? सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड़कैसे मिसत्रिवेणी , समद्ध 17 रहकर मम ि के कानून तो मानने ही यडेंगेफिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर हैं।उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितयों ने जैसा बनाया वैसी बन गई मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड़ गई है। मैं चाहती हूं बह ढोल को गले से निकालकर किसी में फेंक दें। मेरा बस खंदक चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दें। सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लकिन उस क्या हालत हांगा, यह तो मांचा। तिब्बी अधीर होकर बोली -तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी। सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहींसमझतोकितनी भोल है। गंभीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन में इस शोक में अपना गला क्यों न काट , लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है।