की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो।
तिब्बी ने आग्रह किया कुछ देर और बैठिए न?
—आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आऊंगा।
—कब आइएगा?
—जल्द ही आऊंगा।
—काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।
सन्तकुमार बरामदे में कूदकर नीचे उतरे और तेजी से होते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर भी, किसी को कुछ समझनी न थी, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियां के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सार अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी सादी, मरन विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने यह आसन पा लिया था और अब वह जिस तरफ चाहे उसे लेजा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता! अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी सांगनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करें, हमेशा इनके पीछे पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है। और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांध रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कोन सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे।
चार
सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने हो जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को उंगलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनो भक्ति करती। अब उन्हें विलंब न करना चाहिए। कोन जाने कब तिमी विरुद्ध हो जाय। और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है। तिब्बी उन्हें कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे। वहीं मतभेद हो जाएगा। यहां से वह सीधे मि° सिन्हा के घर पहुंचे। शाम हो गई थी। कुहरा पड़ना शुरू हो गया था। मि° सिन्हा सजे सजाए कहा जाने को तैयार खड़े थे। इन्हें देखते ही पूछा—
—किधर से?
—वहीं से। आज तो रंग जम गया।