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350: प्रेमचंद रचनावली-6
 

-सव । -हां जी। उस पर नो जैसे मैंने जादू को लकड़ी फेर दी हो।

फिर क्या, बाजी मार ली है। अपने फादर से आज ही जिक्र छेड़ो

-आपको भी मेरे साथ चलना पड़ेगा।

-हां, हां, मैं तो चलूगा ही। मगर तुम तो बड़े खुशनसीब निकले-यह मिस कामत ता मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है। मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं। जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांच ही नहीं रखता। मगर एक बात है, औरत समझदार है। उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकलन न जाऊंइसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है, और बनावसिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती हैं। और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है।

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ -तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे।

-हां, अब भी हूं, लेकिन रुपये की जो शर्त है। डाक्टर साहब बीस पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लू। शादी कर लेने से मैं उसके हाथ में विका तो नहीं जाता।

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवक्रमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए। देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वासन हुआ। उन्होंने स्वच्छंदनिर्धक, निष्कपट जिदगी ब्रतान की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है, उसने सदैव उनको ढारस दिग्गा था। उन्होंने तकली उठाई थीं, फनके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आग को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गएबोने मून खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके। और इससे ज्यादा दु:इस यान का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर।

सन्तरमार ने निस्सकाच भाव से कहा- जरूरत सब ब्छ सिखा दती है।स्त्र का प्रतिर का पहला नियम हैं। वह जायदाद जो अपने बीस हजार में दे दो, आज दो लाख़ स म ? नहीं है।

-बह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो। मेरे लिए बह अन्म को बेचने का प्रश्न है। में थोड़े से रुपयों क लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता ।

दानों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए। कितनी पुरानी दलील है अन कितनी लचर। आत्मा जैसी चीज है कहा? और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चत्न रह हैं त आत्मा कहां रहीअगर सौ रुपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नह है, अगर एक लाख तमनामफाक्रकश मजदूरों की कमाई पर एक संठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुसनो कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो?

संचंतकुमार ने तीखे स्वर में कहा- अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो यवा पडेगा: झुमके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते हैं। क्यों हैं? धर्म वह है जिससे समाज का हित हो, अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो। इसम समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं।

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है। उन मर्यादाओं को तोड़ दो और रमाज का अत हो जाएगा।