होता। नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पड़ेगा। दरिंदों के बीच में उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जढ़ता है। आज जो इतने तालुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं। और क्या उन्होंने यह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया? पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रुपये खर्च करना क्या जरूरी था? और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक मंडली खोलकर हजारों रुपये उसमें डुबाना अनिवार्य था? वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई? अगर उन्हें मुफ्त की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लड़के क्यों न मुफ्त की संपत्ति भोगें? अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लड़के क्यों तपस्या करें?
और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है। और जुआ खेलकर या दूसरों के लाेभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से। बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं। नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायें। बाकी उन्हें मिल जाये। अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस सेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता। इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू में विचार किया और वह उनके मन में जम गया। अब किसी तरह नहीं हिल सकता। और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और फैले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो।
एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साफ-साफ कह दिया—अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लड़के आपके ऊपर दावा करेंगे।
गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे अंग्रेजी में कुशल कानून में चतुर राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे, और व्यापार अच्छा देखते-बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे। सारा कारोबर अंग्रेजी ढंग से करते थे। उनका पता सेट मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्विन करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जड़वादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे। कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पड़े तो सूद पर रुपये देते थे, मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे। हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खड़े रहते थे। चलते वक्त आदमियों को दो-चार रुपये इनाम दे आते थे। गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करेंगे और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्यांहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के। अपने हकों के लिए लड़ना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।
देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये। उनकी बड़ी इज्जत करते थे। उनकी कई