जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा। जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं फैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले? यह दान ही है, और कुछ नहीं। एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया। इस अवसर पर उनके लिए शाेभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें। उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा, लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है। वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाये से लगते थे। नेकनामों की लालसा एक ओर खींचती थी, लोभ दूसरी ओर। मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है। लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पड़ा। उनका जीवन बौद्धिक था, और बुद्धि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है। नीति का सहारा मिल जाय तो फिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती। वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे। जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई। मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी जिसके सिर में दर्द हो रहा हो। उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, ऊपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और साग यह अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा—किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रखा वह कौन-सा प्रकाश था जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।
सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुखी दौड़ गई। यह दान नहीं प्राविडेंट फंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है। सरकार की नौकरी में लोग पेंशन पाते हैं, क्या वह दान है? उन्होंने जन्ता की सेवा की है, तन-मन से की है इस धुन से की है जा बड़े-से-बड़े वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्यों लाज आये?
राजा साहब ने जब थैली भेंट की ताे देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थीं।
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