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36 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


ऊंचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहां नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुंचता।

धनिया ने आंखों में रस भरकर कहा- चलो-चलो, बड़े बखान करने वाले। जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।

होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा -ले,अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया। भोला से पूछ मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?

धनिया ने बात बदलकर कहा-देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि खाली हाथ।

चौधरी ने पसीने में लथपथ आकर कहा—महतो, चलकर बांस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊंगा।

होरी ने बांस गिनने की जरूरत न समझी चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बांस बेसी काट ही लेगा, तो क्या। रोज ही तो मंगनी बांस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दर्जनों बांस काट ले जाते हैं।

चौभरी ने साढ़े सात रुपये निकालकर उसके हाथ में रख दिए। होरी ने गिनकर कहा-और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं।

चौधरी ने बेमुरौवती से कहा-पंद्रह रुपये में तय हुए हैं कि नहीं?

'पंद्रह रुपये में नहीं, बीस रुपये में।'

'हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रुपये कहे थे। कहो तो बुला ला?

‘तय तो बीस रुपये में ही हुए थे चौधरी अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।

मगर चौधरी कच्ची गोलियां न खेला था। अब उसे किसका डर होरी के मुंह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे माथा ठोंककर रह गया। बस इतना बोला-यह अच्छी बात नहीं है, चोधरी, दो रुपये दबाकर राजा न हो जाओगे।

चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला -और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो जाओगे? ढाई रुपये पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो । अभी पर्दा खोल दें, तो सिर नीचा हो जाय।

होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गए। चौधरी तो रुपये सामने जमीन पर रखकर चला गया, पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी हैं, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपये दे दिए होते, तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपनी चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाए ढाई रुपये मिल गए। ठोकर खाकर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।

धनिया अंदर चली गई थी। बाहर आई तो रुपये जमीन पर पड़े देखे, गिनकर बोली-और रुपये क्या हुए, दस न चाहिए?

होरी ने लंबा मुंह बनाकर कहा- हीरा ने पंद्रह रुपये में दे दिए, तो मैं क्या करता।

'हीरा पांच रुपये में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।'

'वहां मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता?'

होरी ने अपनी पराजय अपने मन में ही डाल ली , जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीतकर आप अपनी धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं, जीत में सब कुछ माफ है। हार की लज्जा