होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध होकर कहा- नहीं, गाय का गोबर तू पाथना। सोना गाय के पास आय तो भगा देना।
रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा-दूध भी मैं ही दुहूंगी।
'हां-हां, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?'
'वह मेरी गाय होगी।'
'हां, सोलहों आने तेरी।'
रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजित सोना को सुनाने चली गई। गाय मेरी होगी, उसका दूध में दुहूंगी, उसका गोबर में पाथूंगी, तुझे कुछ न मिलेगा।
सोना उम्र से किशोरीदेह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाए, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबा, रूखा, किंतु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आंखों में एक प्रकार की तृप्ति, न केशों में तेल, न आंखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबा कर बौना कर दिया हो।
सिर को एक झटका देकर बोली-जा, तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी तो मैं पी जाऊंगी।
'मैं दूध की हांड़ी ताले में बंद करके रखूंगी।'
'मैं ताला तोड़कर दूध निकाल लाऊंगी।'
यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गए थे। हवा के झोको से एकाध जमीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले, लेकिन बाल-वृंद उन्हें टपके समझकर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा जरूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करता, इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लाएगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलाएगा, क्या पहनाएगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई बालक उससे विवाह करने पर राजी न होता।
सांझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नांद में लगाया, मानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी कोई तीन सौ कर्ज था, जिस पर कोई सौ रुपये सूद के बढ़ते जाते थे। मंगरू साह से आज पांच साल हुए, बैल के लिए साठ रुपये लिए थे, उसमें साठ दे चुका था, पर वह साठ रुपये ज्यों के त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तीस रुपये लेकर आलू बोए थे, आलू तो चोर खोद ले गए, और उस तीस के इन तीन बरसो में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गांव में नोन, तेल, तंबाकू की दूकान रखे हुए थी। बंटवारे के समय उससे चालीस रुपये लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपये हो गए थे, क्योंकि आने रुपये का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपये बाकी पड़े
हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबंध करना था। बांसों के रुपये बड़े अच्छे समय पर मिल गए। शगुन की समस्या हल हो जायगी, लेकिन कौन जाने। यहां तो एक
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38 : प्रेमचंद रचनावली-6