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पृष्ठ:गोदान.pdf/३९

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गोदान : 39
 


धेला भी हाथ में आ जाय, तो गांव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं। ये पांच रुपये तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाय, मगर अभी जिंदगी के दो बड़ेबड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बांधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आएंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न ले, जिसका आता हो, उसका पाई-पाई चुका है, लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा, उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख मांगते फिरेंगे। होरी जब काम-से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था, तो यह चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्राय: सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। सोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे, मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया था। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर, भिखारी भीख भी नहीं पाता, लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहां कौन बचा है?

सहसा पन्ना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आईं और एक साथ बोलीं- भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे भैया हैं।

रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह खबर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता?

उसने आगे बढ़कर कहा पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।

सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली-तूने भैया को कहां पहचाना? तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा, भैया हैं।

दोनों फिर बाग की तरफ दौड़ों, गाय का स्वागत करने के लिए।

धनिया और होरी दोनों गाय बांधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला-चलो, जल्दी से नांद गाड़ दें।

धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी- नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नांद गाड़ो, मैं घोलती हूं।

'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूंढ़ ले। उसके गले में बांधेंगे।

‘सोना कहां गई? सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मंगवा लो,गाय को नजर बहुत लगती है।'

'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।'

धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाए, यह शंका उसके निराश हदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली-गाय के आने का आनंद तो तब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान् के मन की बात है।

मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी