सत्तर साल के बूढ़े पंडित दातादीन लठिया टेकते हुए आए और पोपले मुंह से बोले-कहां हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें सुना, बड़ी सुंदर है।
होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनंद उठाता हुआ, बडे़ सम्मान से पंडितजी को आंगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आंखों से देखा, सींगें देखी , थन देखा, पुट्ठा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आंखों में जवानी की उमंग भरकर बोले-कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जायंगे। ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह। बस रातिब न कम होने पाए। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।
होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियां खाते हुए कहा- सब आपका असीरबाद है,दादा।
दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा-मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपये नगद दिए?
होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नई टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग आसमान पर चढ़े? बोला-भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज। नगद गिनाए, पूरे चौकस।
अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी, पर दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई चिन्ह न दिखाई दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बुझी आंखों से छिपा न रह सका, जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।
प्रसन्न होकर बोले-कोई हरज नही बेटा, कोई हरज नहीं। भगवान् सब कल्याण करेंगे। पांच सेर दूध है इसमें, बच्चे के लिए छोड़कर।
धनिया ने तुरंत टोका-अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहां। बुढ़िया तो हो गई है। फिर यहां रातिब कहां धरा है।
दातादीन ने मर्मभरी आंखों से देखकर उसकी सतर्कता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, 'गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो।' फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले बाहर न बांधना, इतना कह देते हैं।
धनिया ने पति की ओर विजयी आंखों से देखा, मानो कह रही हो। लो, अब तो मानोगे। दातादीन से बोली-नहीं महाराज, बाहर क्या बांधेगे, भगवान् दें तो इसी आंगन में तीन गायें और बंध सकती हैं।
सारा गांव गाय देखने आया। नहीं आए तो सोभा और हीरा, जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। सांझ हो गई। दोनों पुर लेकर लौट आए। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं।
होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा-न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?
धनिया बोली तो यहां कौन उन्हें बुलाने जाता है।
‘तू बात तो समझती नहीं लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुंह से अपनी भलाई-बुराई