आकर बोला-अच्छा बस, अब चुप हो जा हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूं। जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारण। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।
चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कहा, पटेश्वरी ने गुडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा। एक उद्दंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
हीरा संभल गया। सारा गांव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाकी था।
धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली-सुन लो खान खोल के भाइयों के लिए मरते हो। यह भाई हैं, ऐसे भाई को मुंह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला....
होरी ने डांटा-फिर क्यों बक-बक करने लगी तू। घर क्यों नहीं जाती?
धनिया जमीन पर बैठ गई और आर्त स्वर में बोली—अब तो इसके जूते खा के जाऊंगी। जरा इसकी मरदुमी देख लूं, कहां है गोबर? अब किस दिन काम आएगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी मां को जूते मारे जा रहे हैं ।
यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूंक-फूंककर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भांति झपटकर हीरा को इतने जोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली—कहां जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूं तेरी मरदुमी ।
होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।
पांच
उधर गोबर खाना खाकर अहिराने मे जा पहुंचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय लेकर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आई थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता। अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्म-भरी आंखों से देखकर कहा-अब तुम काहे को यहां कभी आओगे?
एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गांव में जितनी युवतियां थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियां। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियां अलबत्ता कभी-कभी उससे ठिठोली किया करती थीं, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जाय, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी और से प्रोत्साहन न पाकर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग और हास-विलास ने और