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50  : प्रेमचंद रचनावली-6
 


में, उसके साथ रहूंगी। हरजाई नहीं हूं कि सबसे हंसती-बोलती फिरूं। न रुपये की भूखी हूं, न गहने कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूं, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूं। एक पंडितजी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आध सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गई थी। मुझे क्या मालूम और दिनों की तरह दूध लिए भीतर चली गई। वहां पुकारती हूं, बहूजी, बहूजी। कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूं तो पंडितजी बाहर के किवाड़ बंद किए चले आ रहे हैं। मैं समझ गई इसकी नीयत खराब है। मैंने डांटकर पूछा- तुमने किवाड़ क्यों बंद कर लिए? क्या बहूजी कहीं गई हैं? घर में सन्नाटा क्यों है?

उसने कहा-वह एक नेवते में गई हैं, और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया।

मैंने कहा-तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूं। बोला-आज तो तुम यहां से न जाने पाओगो झूनी रानी। रोज-रोज कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूं, गोबर, मेरे रोएं खड़े हो गए।

गोबर आवेश में आकर बोला-मैं बचा को देख पाऊं, तो खोदकर जमीन में गाड दूं। खून चूस लूं। तुम मुझे दिखा तो देना।

'सुनो तो, ऐसों का मुंह तोड़ने के लिए मैं ही काफी हूं। मेरी छाती धक-धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूंगी? कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा, लेकिन मन में यह निश्चय कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हांड़ी उसके मुंह पर पटक दूंगी। बला से चार-पांच से दूध जायगा, बचा को याद तो हो जायगा। कलेजा मजबूत करके बोली-इस फेर में न रहना पंडितजी। मैं अहीर की लड़की हूं। मूंछ का एक-एक बाल नुचवा लूंगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्र में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बंद करके बेइज्जत करो। इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाए बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने-एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा, झूना रानी। कभी-कभी गरीबों पर दया किया करो,नहीं भगवान् पूछेंगे मैंने तुम्हें इतना रूप-धन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूं, रुपये-पैसे का दान तो रोज ही पाता हूं, आज रूप का दान दे दो।

'मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपये लूंगी। सच कहती हूं गोबर, तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पांच नोट निकाल कर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिए और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हांड़ी उसके मुंह पर दे मारी। सिर से पांव तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोलकर भागी।'

गोबर ठट्ठा मारकर बोला-बहुत अच्छा किया तुमने । दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गई होगी। मूंछें भी क्यों न उखाड़ लीं?

'दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गई। उसकी घरवाली आ गई थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बांधे पड़ा था। मैंने कहा-कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूं पंडित लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा-अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूं। सिर जमीन पर रगड़कर कहने लगा-अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पंडिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी