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गोदान : 53
 


झुनिया अंगूठा दिखाकर चल दी। प्रथम मिलन में ही दोनों एक-दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आएगा, कैसे न आएगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी?

जब वह अकेला गाय को हांकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।


छह

जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में, पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियां डाटे, नीले साफे बांधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आकर रुकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र'बिजली' के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देशचिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोटपैंट में हैं, वह हैं तो वकीलपर वकालत न चलने के कारण एक बीमा कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने में वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी० मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन रायसाहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव पर निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के असामी आएंगे और शगुन के रुपये भेंट करेंगे। रात को धनुष यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पांच रुपये शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने, गुलाबी पगड़ी बांधे, घुटने तक काछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है, मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है।

रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊंचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर तेजस्वी चेहरा, ऊंचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी।

पंडित ओंकारनाथ ने पूछा-अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है? मेरे रस की तो यहां वही एक वस्तु है।

रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपनी रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा-पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पांच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहां एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा।